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________________ जैन साधना में समत्वयोग का स्थान २७ (१) वही, समरूप; (२) समान; (३) के समान, वैसा ही, मिलता-जुलता; (४) समान, समतल, चौरस; (५) समसंख्या ; (६) निष्पक्ष, न्याययुक्त; (७) भला, सद्गुण सम्पन्न; (८) सामान्य मामूली; (E) मध्यवर्ती, बीच का; (१०) सीधा; (११) तटस्थ, अचल, निरावेश; (१२) सब, प्रत्येक; और (१३) पूर्ण, समस्त, पूरा। अकारान्त सम शब्द से भावार्थक तद्धित प्रत्यय 'त्व' होकर 'समत्व' शब्द निष्पन्न होता है। जिसके अर्थ इस प्रकार से किये गये हैं : (क) एकसापन, एकरूपता; (ख) समानता, एकजैसापन; (ग) बराबरी; (घ) निष्पक्षता न्यायता; (च) सन्तुलन; (छ) पूर्णता; और (ज) सामान्यता। सम्यक्त्व में 'सम्यक्' अव्यय है। इसका अर्थ इस प्रकार किया गया है : (१) साथ-साथ; (२) अच्छा, उचित रूप से, सही ढंग से, शुद्धतापूर्वक, सचमुच; (३) यथावत् - यथोचित ढंग से, ठीक-ठीक; (४) सम्मानपूर्वक (५) पूरी तरह से, पूर्णतः; और (६) स्पष्ट रूप से। सम्यक् शब्द से भावार्थक तद्धित प्रत्यय 'त्व' लगाकर 'सम्यक्त्व' शब्द निष्पन्न होता है। जैनदर्शन में सम्यक्त्व और समत्व दोनों ही शब्द एक दूसरे के पर्यायवाची रूप में प्रयुक्त होते रहे हैं। फिर भी दोनों के मध्य अर्थ की अपेक्षा से थोड़ा अन्तर अवश्य है। सम्यक् शब्द सत्यता, यथार्थता या औचित्य का परिचायक है। अभिधान राजेन्द्रकोष में ६० 'तस्य भावस्त्वतलौ' - भाव अर्थ में प्रतिपदिकों से 'त्व' एवम् 'तल' प्रत्यय होते हैं। -वही ५/१/११६ । ६१ 'सामायिकधर्म : एक पूर्णयोग' पृ. ३-४ । -आचार्य कलापूर्णसूरि । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001732
Book TitleJain Darshan me Samatvayog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyvandanashreeji
PublisherPrem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
Publication Year2007
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Yoga, & Principle
File Size7 MB
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