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जैन साधना में समत्वयोग का स्थान
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को आध्यात्मिक साधना का वाचक माना है।
गीता में श्रीकृष्ण ने दो स्थानों पर योग शब्द की परिभाषा दी है। गीता के द्वितीय अध्याय में वे कहते हैं कि “समत्व को योग कहा जाता है।"६३ इसी अध्याय में अन्यत्र वे कर्म की कुशलता को योग कहते हैं।६४ योग की इस द्वितीय व्याख्या में 'कुशलता' का तात्पर्य व्यवहारिक कुशलता न होकर कर्म करने की वह प्रक्रिया है जिसमें कर्म करते हुए भी व्यक्ति बन्धन में न पड़े। गीता में ज्ञानयोग, कर्मयोग, भक्तियोग आदि के साथ जो योग शब्द का प्रयोग हुआ है, वह भी यही सूचित करता है कि ज्ञान, कर्म और भक्ति की वह प्रक्रिया जिसके द्वारा आत्मा परमात्मा को प्राप्त करती है, वह योग है।६५ __ प्रस्तुत प्रसंग में जब हम 'समत्वयोग' की बात करते हैं तो उसका तात्पर्य यही होता है कि ज्ञान, कर्म, भक्ति अथवा ध्यान जब व्यक्ति को राग-द्वेष से ऊपर उठाकर समत्व में स्थापित करते हैं, तो वे योग बन जाते हैं। वस्तुतः समत्वयोग का तात्पर्य है कि मन, वचन और काया की प्रवृत्तियों को इस प्रकार योजित करना कि वे चित्त विक्षोभ का कारण नहीं बनें। ज्ञानयोग, कर्मयोग, भक्तियोग अथवा ध्यानयोग आदि सभी का मुख्य प्रयोजन चित्तवृत्ति का समत्व ही है।
वे सभी प्रवृत्तियाँ जिनसे चित्तवृत्ति का विचलन समाप्त हो, चित्त स्थिर बने, उसमें राग-द्वेष के संकल्प-विकल्प न उठें; वही योग है और उसे ही जैन परम्परा में समत्वयोग या सामायिक की साधना के रूप में परिभाषित किया गया है।
__ 'योगबिन्दु' में आचार्य हरिभद्र ने मोक्ष प्राप्ति के अन्तरंग साधन धर्म-व्यापार को योग बताकर उसे पांच रूपों में विभक्त किया है। वे पांच रूप इस प्रकार हैं :
१. अध्यात्मयोग; २. भावनायोग;
६३ 'समत्वं योग उच्यते ।। ४८ ॥'
-गीता अध्याय २। ६४ 'योगः कर्मसु कौशलम् ।। ५० ।।'
___ -वही । ६५ 'जैन, बौद्ध और गीता के आचार दर्षनों का तुलनात्मक अध्ययन' भाग २ पृ. १२ ।
-डॉ. सागरमल जैन।
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