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जैन दर्शन में समत्वयोग की साधना
३. ध्यानयोग;
४. समतायोग; और ५. वृत्ति-संक्षय योग। उन्होंने इन्हें मोक्ष के साथ संयोजन कराने या जोड़ने के कारण योग कहा है।६६ ये पांचों योग क्रमशः एक दूसरे से श्रेष्ठ माने गये हैं। पातंजलि योगदर्शन के अनुसार संप्रज्ञात और असंप्रज्ञात योग (समाधि) को उन्होंने इन पंचविध योगों में समाविष्ट किया है।
__ अध्यात्मयोग व्याकरण शास्त्र की दृष्टि से जो भी प्रवृत्ति या क्रिया अथवा अनुष्ठान आत्मा को लक्ष्य में रखकर किया जाए, उसे अध्यात्म कहते हैं।६८ जिससे मोह का क्षय होता हो, मैत्री आदि भावनाओं का विकास होता हो, शास्त्रोक्त तत्त्व-चिन्तन को बल मिलता हो, व्रत नियमादि का सम्यक् परिपालन हो, तप, जप, ध्यान आदि में प्रवृत्ति हो, सामायिक या समता की आराधना हो, वह अध्यात्मयोग
भावनायोग अनादिकालीन मलिन वृत्तियों को त्यागकर ज्ञान, ध्यान एवं समत्व की उपासना से चित्तं की विशुद्धि होना ही भावनायोग है। सूत्रकृतांगसूत्र में बताया गया है कि जिसकी आत्मा शुद्ध हो गई हो, वह साधक जल में नौका के समान संसार में रहते हुए भी उससे ऊपर उठ जाता है। वस्तुतः भावनायोग संसार-समुद्र का अन्त कराने वाला है।६६ उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया है कि “शरीर नौका है, जीव नाविक है और संसार समुद्र है, जिसे
५६ 'अध्यात्म भावना ध्यानं समता वृत्ति - संक्षयः । मोक्षेण योजनाद्योगः एष श्रेष्ठो यथोत्तरम् ।। ३१ ।'
-योगबिन्दु । ६७ 'समिति-गुप्ति साधरण धर्म व्यापारत्व मेव योगत्वम् (मोक्ष प्रापक)।'
___-उपा. यशोविजयजी (पातंजल योगदर्शन सू. १/२ की वृत्ति) । ६८ 'आत्मानमधिकृत्य यद् वर्तते तदध्यात्मकम्'
-अध्यात्मसार पृ. १। ६६ (क) 'भावणाजोग सुद्धापा, जले णावा व आहिया ।
___णावा व तीर संपत्त सव्व-दुक्खा तिउट्टति ।।५।। -सूत्रकृतांगसूत्र अध्याय १५ । (ख) 'जैनागमों में अष्टांगयोग' पृ. १६ ।
-आचार्य आत्मरामजी ।
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