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जैन दर्शन में समत्वयोग की साधना
रूप में प्रयुक्त देखा जाता है, किन्तु योग शब्द को बन्धन के निमित्त के स्थान से हटाकर मुक्ति के साधन के रूप में स्थापित करने का श्रेय तो आचार्य हरिभद्र को ही जाता है।
पतंजलि के योगसूत्र में योग शब्द को चित्तवृत्ति के निरोध अर्थात् मन की स्थिरता के रूप प्रयुक्त किया गया है। आचार्य हरिभद्र के पूर्व आचार्य भद्रबाहु ने भी आवश्यकनियुक्ति में ध्यान और समाधि के अर्थ में योग शब्द का प्रयोग किया है। किन्तु इससे यही सिद्ध होता है कि योग शब्द की ध्यान, समाधि, मनन, स्थिरता आदि मुक्ति के साधनों के रूप में स्वीकृति एक परवर्ती घटना ही है। विशेष रूप से आचार्य हरिभद्र के काल से अन्य परम्पराओं के समान ही जैन परम्परा में भी योग शब्द आध्यात्मिक साधना का वाचक बना है। जहाँ पूर्व में वह मन, वचन और शरीर की प्रवृत्तियों का वाचक होकर कर्म के आसव का कारण था, वहीं परवर्ती काल में वह मन, वचन और शरीर की प्रवृत्तियों के निरोध रूप संवर का कारण माना गया। ___आचार्य कुन्दकुन्द ने नियमसार में कहा है कि जो आत्मा को अपने स्व-स्वभाव से जोड़ता है वह योग है।० तत्त्वार्थ राजवार्तिक में भी योग को समाधि और ध्यान का वाचक बताया गया है।” योगसार में योग शब्द के अर्थ को परिभाषित करते हुए लिखा है कि जिस योग अर्थात् एकाग्र चित्तनिरोध रूप ध्यान अथवा मन को इन्द्रियजन्य व्यापार से हटाकर शुद्ध आत्मतत्व का परिज्ञान किया जाता है, उसे ही योगियों ने वास्तव में योग कहा है।६२ ।
इस प्रकार हम देखते हैं कि दिगम्बर परम्परा में आचार्य कुन्दकुन्द और श्वेताम्बर परम्परा में आचार्य हरिभद्र ने योग शब्द
-योगदर्शन १
५८ 'योगश्चित्तवृत्ति निरोधः ।।२।।' ५६ आवश्यकनिर्यक्ति १०१० । ६० 'विवरीयाभिणिवेसं परिचत्ता जोण्हकहिय तच्चेसु ।
जो मुंजदि अप्पाणं णियभावो सो हवे जोगो ।।१३६ ।।' ६१ 'युजेः समाधिवचनस्य योगः समाधिःर्थ्यानमित्यनर्थान्तरम् ।' ६२ 'इंदिहि वि छोडियइ बहु पुच्छियइ ण कोइ ।।
रायह पसरू णिवारियइ सहज उपज्जइ सोइ ।। ५४ ।।'
-नियमसार १० । -राजवार्तिक ६-१-१२ ।
-योगसार टीका ।
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