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________________ आधुनिक मनोविज्ञान और समत्वयोग उच्च जीवन-स्तर की अन्धी दौड़ भी हमारे चैतसिक समत्व भंग करती है। इस प्रकार विक्षोभों और तनावों को जन्म देने में सामाजिक कारणों का भी महत्त्वपूर्ण स्थान रहा हुआ है I व्यक्ति में मानसिक असन्तुलन से द्वन्द्व का जन्म होता है । मनोविज्ञान की भाषा में व्यक्ति के यथार्थ और आदर्श के मध्य असन्तुलन उत्पन्न होता है । व्यक्ति में एक अर्न्तद्वन्द्व चलता है । इस अर्न्तद्वन्द्व की स्थिति में समत्वयोग की साधना सम्भव नहीं होती । ये अन्तर्द्वन्द क्यों और कितने प्रकार के होते हैं? इसकी की चर्चा डॉ. सुरेन्द्र वर्मा ने अपने लेख 'द्वन्द्व और द्वन्द्व निवारण' में की है । आगे हम उसी आधार पर इनकी विस्तृत चर्चा करेंगे । द्वन्द्व को विभिन्न दृष्टिकोणों से देखा जा सकता है। मनोविज्ञान मूलतः दो वृत्तियों के बीच संघर्ष की स्थिति को द्वन्द्व के रूप में स्वीकार करता है; तो समाजशास्त्र द्वन्द्व के दो पक्षों के बीच विरोध मानता है। राजनीति में द्वन्द्व (संघर्ष) को सशस्त्र युद्ध अथवा शीतयुद्ध के रूप में माना जाता है । फादर बुल्के के हिन्दी-अंग्रेजी शब्द कोष में भी कंफ्लिक्ट (conflict) के तीन अर्थ मिलते हैं : २. संघर्ष; और ३. द्वन्द्व या विरोध ।' I १. युद्ध; प्राचीन भारतीय दर्शन में हमें द्वन्द्व और द्वन्द्व के निराकरण की अवधारणा उपलब्ध होती है । जहाँ तक जैनदर्शन का प्रश्न है; उसने द्वन्द्व के स्थान पर द्वन्द्व निराकरण पर बल दिया है। वस्तुतः जीवन का लक्ष्य या परम साध्य युद्ध, संघर्ष या द्वन्द्व नहीं है, अपितु उसका निराकरण है । जीवन का लक्ष्य जीवन से हटकर नहीं हो सकता। जीवन के सम्बन्ध में दो दृष्टियाँ रही हैं। एक जैविक दृष्टि और दूसरी आध्यात्मिक दृष्टि । जैविक दृष्टि से हम देखते हैं कि जीवन एक ऐसी प्रक्रिया है जो सदैव ही परिवेश के प्रति क्रियाशील है । जीवन की यह क्रियाशीलता सन्तुलन बनाए रखने का प्रयास है । डॉ. राधाकृष्णन् ने भी जीवन को गतिशील या सन्तुलित बताया है । स्पेन्सर के अनुसार परिवेश में निहित तथ्य देखिये 'हिन्दी अंग्रेजी - कोश' पृ. ४४८ शब्द 'द्वन्द्व' | २ 'Outlines of Zoology' पृ. २१ । 9 ३ ३४७ 'जीवन की आध्यात्मिक दृष्टि' पृ. २५१ । Jain Education International For Private & Personal Use Only -कामिल बुल्के । -डॉ. राधाकृष्णन । www.jainelibrary.org
SR No.001732
Book TitleJain Darshan me Samatvayog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyvandanashreeji
PublisherPrem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
Publication Year2007
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Yoga, & Principle
File Size7 MB
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