SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 399
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३४६ जैनदर्शन में समत्वयोग की साधना का ज्ञान और आचरण सम्यक् नहीं होता है। अतः जैनदर्शन की दृष्टि से विक्षोभों या तनावों का वैयक्तिक कारण व्यक्ति में अपनी क्षमताओं और परिस्थितियों की सम्यक् समझ का अभाव ही है। ६.२ विक्षोभों और तनावों के सामाजिक कारण व्यक्ति के जीवन में विक्षोभों या तनावों का जन्म न केवल उसके अपने व्यक्तित्व के कारण होता है, किन्तु उसके कुछ बाह्य परिस्थितिजन्य सामाजिक कारण भी होते हैं। सामाजिक परिवेश भी कभी-कभी मानसिक तनावों या विक्षोभों को जन्म देते हैं। उदाहरण के रूप में समाज में जब भोगवादी संस्कृति का विकास होता है, तो व्यक्ति में भी इच्छाओं आकांक्षाओं का स्तर ऊपर उठ जाता है। उदाहरण के रूप में जब भी सुख सुविधा की नई-नई वस्तु बाजार में आती है, तो व्यक्ति अपनी आर्थिक क्षमता का विचार किये बिना उनकी ओर आकर्षित होता है। उसमें उनको पाने की बलवती इच्छा जन्म लेती है। किन्तु अपनी आर्थिक क्षमता के अभाव के कारण वह उसकी पूर्ति करने में असफल होता है अथवा अनैतिक साधनों के द्वारा उसकी पूर्ति का प्रयत्न करता है। अनैतिक आचरण के कारण उसकी अन्तरात्मा उसे कचोटती है। यह सब उसमें विक्षोभों और तनावों को जन्म देता है। व्यक्ति यथार्थ और आदर्श का सम्यक् सन्तुलन नहीं बना पाता है। कभी-कभी समाज में ऐसे आदर्शों का निर्माण हो जाता है, जिसे वैयक्तिक जीवन में और सम सामायिक परिस्थितियों में पूरा करना सम्भव नहीं होता। इससे भी व्यक्ति में हीन भावना की ग्रन्थि का विकास होता है और वह मनोवैज्ञानिक दृष्टि से असन्तुलित बन जाता है। सामाजिक आदर्शों और मूल्यों की संरचना भी व्यक्ति और उसकी परिस्थितियों को ध्यान में रख कर ही की जानी चाहिए। कभी-कभी समाज द्वारा अयोग्य व्यक्ति को दिया गया अति उच्च आदर भी व्यक्ति के तनावों और विक्षोभों का कारण बनता है। इस प्रकार विक्षोभों और तनावों का कारण न केवल व्यक्ति होता है, अपितु समाज या बाह्य परिस्थितियाँ भी होती हैं। उदाहरण के रूप में आतंकवादियों की उपस्थिति व्यक्ति के वैयक्तिक और सामाजिक सन्तुलन या शांति को भंग करती है। वे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001732
Book TitleJain Darshan me Samatvayog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyvandanashreeji
PublisherPrem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
Publication Year2007
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Yoga, & Principle
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy