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________________ ३४४ जैनदर्शन में समत्वयोग की साधना हैं कि विक्षोभों के परिणामस्वरूप व्यक्ति के व्यवहार में असामान्यता का विकास होता है। उसका जीवन व्यवहार अव्यवस्थित बन जाता है। साथ ही तनावों के परिणामस्वरूप उसका मानसिक सन्तुलन भंग होता है। वह अति सांवेगिक बन जाता है। उसके मनोभाव असन्तुलित हो जाते हैं। चिन्ता, विषाद आदि उसे सदैव घेरे रहते हैं। इस प्रकार के व्यक्ति आधुनिक मनोविज्ञान में असामान्य कहे जाते हैं एवं जैनदर्शन की दृष्टि में मिथ्यादृष्टि अथवा समभाव रहित माने जाते हैं। ज्ञातव्य है कि जैनदर्शन में सम्यग्दर्शन का आधार समत्व ही है। चित्तवृत्ति का समत्व सम्यग्दर्शन का मूल है। सम्यग्दर्शन के पांच लक्षणों में प्रथम लक्षण 'सम' है। जो समत्व या समभाव से रहित है, उसे ही जैनदर्शन मिथ्यादृष्टि कहता है। व्यक्ति के व्यक्तित्व में असामान्यता या अव्यवस्था का मूलभूत कारण तो उसकी इच्छाओं और आकाक्षाओं का उच्च स्तर ही होता है। किन्तु कभी-कभी बाह्य परिवेशगत तथ्य भी व्यक्ति के व्यवहार को असामान्य बना देता है। वस्तुतः इस सब के पीछे परिस्थितियों की सम्यक् समझ का अभाव होता है। व्यक्ति अपनी क्षमता एवं परिस्थिति का विचार न करके अपनी इच्छाओं-आकांक्षाओं के स्तर में वृद्धि कर उनकी पूर्ति चाहता है और जब उसमें असफल रहता है; तो मनोग्रन्थियों की रचना करके एक असामान्य व्यक्ति बन जाता है। उदाहरण के रूप में एक निर्धन व्यक्ति कार एवं बंगले की आकाँक्षा रखे और बाह्य परिस्थितियों अथवा अपनी अक्षमताओं के कारण उसमें सफल न हो, तो परिणामस्वरूप उसमें धनवानों के प्रति घृणा या द्वेष की ग्रन्थि का विकास होगा; जिससे न केवल उसका मानसिक सन्तुलन भंग होगा, अपितु सामाजिक जीवन भी अशान्त बनेगा।। __ जैनदर्शन के अनुसार मिथ्या दृष्टिकोण के कारण राग-द्वेष का जन्म होता है। फलतः अनुकूल और प्रतिकूल परिस्थितियों में व्यक्ति समत्व नहीं रख पाता है। उसका मानसिक सन्तुलन विकृत हो जाता है, जिससे मनोविकृतियों का जन्म होता है और वे मनोविकृतियाँ पुनः मानसिक विक्षोभों और तनावों को जन्म देती हैं। इस प्रकार इन विक्षोभों और तनावों के उत्पन्न होने के कारण वैयक्तिक और सामाजिक दोनों ही प्रकार के होते हैं। आगे हम इनकी चर्चा करेंगे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001732
Book TitleJain Darshan me Samatvayog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyvandanashreeji
PublisherPrem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
Publication Year2007
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Yoga, & Principle
File Size7 MB
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