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________________ ३४२ जैनदर्शन में समत्वयोग की साधना ५.६ तुलनात्मक इस प्रकार हम देखते हैं कि जैनदर्शन के समत्वयोगी या वीतराग बौद्धदर्शन के अर्हत और गीता के स्थितप्रज्ञ के लक्षणों में सैद्धान्तिक रूप से कहीं भी मतभेद नहीं है। तीनों ही परम्पराएँ यह मानकर चलती हैं कि जो व्यक्ति जीवन में आनेवाले अनुकूल-प्रतिकूल संयोगों में विचलित नहीं होता है; जो मान-अपमान, लाभ-हानि और निन्दा-प्रशंसा की स्थितियों में अपने समभाव को नहीं खोता है; जो न अनुकूल संयोगों के प्रति राग-भाव रखता है; न उनकी आकाँक्षा करता है और न प्रतिकूल संयोगों में द्वेष भाव रखकर उनसे बचने का प्रयत्न करता है; जिसकी चित्तवृत्ति को अनुकूल-प्रतिकूल दशाएँ विचलित नहीं करती हैं; वही वस्तुतः वीतराग, अर्हत् या स्थितप्रज्ञ कहा जाता है और उसे ही हम समत्वयोगी की संज्ञा दे सकते हैं। समत्वयोगी या वीतराग सभी प्राणियों को आत्मवत् समझकर इस प्रकार का व्यवहार करता है कि उसके निमित्त से किसी भी प्राणी को पीडा या उद्वेग न हो। इस प्रकार वह अपने सामाजिक सम्बन्धों में भी समायोजनपूर्ण एवं सन्तुलित रहता है। उसका चित्त उद्वेलित नहीं रहता। वस्तुतः जो न राग करता है, न द्वेष करता है और न कामना करता है; वही समत्वयोगी है। जैन, बौद्ध और गीता की परम्पराएँ इसी समत्व की स्थिति को प्राप्त करने का सन्देश देती हैं।१० ।। पंचम अध्याय समाप्त ।। ११० 'जैन, बौद्ध और गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन' भाग १ पृ. ४१६-१६ । ___-डॉ. सागरमल जैन । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001732
Book TitleJain Darshan me Samatvayog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyvandanashreeji
PublisherPrem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
Publication Year2007
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Yoga, & Principle
File Size7 MB
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