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________________ समत्वयोग का तुलनात्मक अध्ययन ३४१ स्पृहा रहित हो गया है - वही शान्ति को प्राप्त होता है।०५ जिस पुरुष ने अपनी इन्द्रियों को कछुए के समान समेट लिया है, उसकी बुद्धि स्थिर होती है। ऐसा व्यक्ति स्थितप्रज्ञ कहा जाता है।०६ जैसे नाना नदियों का पानी समुद्र में जाकर समा जाता है; वैसे ही सब भोग बिना विकार उत्पन्न किये जिस स्थितप्रज्ञ में समा जाते हैं; वही पुरुष परम शान्ति को प्राप्त करता है।०७ वस्तुतः समता ही एकता है। यही परमेश्वर का स्वरूप है। इसमें स्थित हो जाने का नाम ही 'ब्राह्मी स्थिति' है। वह त्रिगुणातीत, निर्विकार, स्थितप्रज्ञ और योगयुक्त कहलाता है। समत्वभाव से यथार्थ भक्ति की उपलब्धि होती है।०८ जो ममता और अहंकार से रहित सुख-दुःख में समभाव रखनेवाला, क्षमाशील, सन्तुष्ट, योगी, यतात्मा और दृढ़निश्चयी है, जिसका मन और बुद्धि परमात्मा में नियोजित है, जो न कभी हर्षित होता है, न कभी द्वेष करता है, न कामना करता है तथा शुभ-अशुभ सम्पूर्ण कर्मों के प्रति फलासक्ति को त्याग चुका है, जो सभी द्वन्द्वों में समभाव से युक्त है; वही स्थितप्रज्ञ है।१०६ १०५ 'प्रजहाति यदा कामान् सर्वान् पार्थ मनोगतान् । आत्मन्येवात्मना तुष्टः स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते ।। ५५ ।।' - वही २। दुःखेष्वनुद्वग्नमनाः सुखेषु विगतस्पृहः । वीतरागभयक्रोधः स्थितधीर्मुनिरूच्यते ।। ५६ ।।' -वही । गतसङ्गस्य मुक्तस्य ज्ञानावस्थितचेतसः । यज्ञायाचरतः कर्म समग्रं प्रविलीयते ।। २३ ।।' -वही अध्याय ४ । विहायकामान्यः सर्वान् पुमांश्चरति निःस्पृहः । निर्ममो निरहङ्कारः स शान्तिमधिगच्छति ।। ७१ ।।' -वही अध्याय २ । 'यदा संहरते चायं कूर्मोऽगानीव सर्वशः । इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ।। ५८ ।।' -वही । १०७ 'आपूर्यमाणमचलप्रतिष्ठं समुद्रमापः प्रविशन्ति यद्वत् । तद्वत्कामा यं प्रविशन्ति सर्वे स शान्तिमाप्नोति न कामकामी ।। ७० ।।' -वही । १०८ 'एषा ब्रह्मी स्थितिः पार्थ नैनां प्राप्य विमुह्यति । स्थित्वास्यामन्तकालेऽपि, बह्ममिर्वाण मृच्छति ।। ७२ ।।' - गीता अध्याय २ । १०६ 'विहाय कामान्यः सर्वापुमांश्चरति निःस्पृहः । निर्ममो निरहङ्कारः स शान्तिमधिगच्छति ।। ७१ ।।' -वही। १०६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001732
Book TitleJain Darshan me Samatvayog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyvandanashreeji
PublisherPrem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
Publication Year2007
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Yoga, & Principle
File Size7 MB
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