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________________ ३३२ जैनदर्शन में समत्वयोग की साधना अन्तिम लक्ष्य समत्व-दर्शन है।३ गीता के तेरहवें अध्याय में बताया गया है कि जो पुरुष नष्ट होते हुए भी चराचर जगत में परमेश्वर को नाश रहित और समभाव में स्थित देखता है, अपने समान परमेश्वर को देखता हुआ स्वयं को नष्ट नहीं करता; वही परम गति को प्राप्त करता है।०४ समत्व भावना के उदय से भक्ति का सच्चा रूप प्रकट होता है। गीता के अठारहवें अध्याय में श्रीकृष्ण ने स्पष्ट कहा है कि जो समत्व भाव में स्थित होता है, वही मेरी परम भक्ति को प्राप्त करता है।७५ बारहवें अध्याय में सच्चे भक्त का लक्षण ही समत्व वृत्ति का उदय माना है।०६ समत्वभाव की स्थिति में ही व्यक्ति कर्म को अकर्म बना देता है। समत्वभाव में स्थित व्यक्ति का आचरण सर्वदा पापबन्ध से मुक्त रहता है। जिस साधन के द्वारा चित्त समाधि को प्राप्त करता है, वही समत्वयोग है। इसी प्रकार गीता में ज्ञान, कर्म, भक्ति और ध्यान सभी समत्व प्राप्त करने के लिए हैं। जब ये समत्व से युक्त हो जाते हैं, तब अपने सच्चे स्वरूप को प्रकट करते हैं और ज्ञान यथार्थज्ञान बन जाता है। भक्ति परम-भक्ति हो जाती है। कर्म अकर्म हो जाता है और ध्यान निर्विकल्प समाधि को उपलब्ध कर लेता है। विनोबाजी -वही अध्याय १३ । -गीता अध्याय १३ । -वही अध्याय १८ । ७३ ‘समं सर्वेषु भूतेषु तिष्ठन्तं परमेश्वरम् । विनश्यत्स्वविनश्यन्तं यः पश्यति स पश्यति ।। २७ ।।' 'समं पश्यन्हि सर्वत्र समवस्थितमीश्वरम् । न हिनस्त्यात्मनात्मानं ततो याति परां गतिम् ।। २८ ।।।' 'ब्रह्मभूतः प्रसन्नात्मा न शोचति न कांक्षति । समः सर्वेषु भूतेषु मद्भक्तिं लभते पराम् ।। ५४ ।।' ७६ (क) 'यो न हृष्यति न द्वेष्टि न शोचति न काङ्क्षति । शुभाशुभपरिन्यागी भक्ति मान्यः स मे प्रियः ।। १७ ।।' (ख) 'तुल्यनिन्दास्तुतिर्मोनी संतुष्टो येनकेनचित् । अनिकेतः स्थिरमतिर्भक्तिमान्मे प्रियो नरः ।। १८ ।।' 'सुख दुःखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयो । ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि ।। ३८ ।।' 'श्रुतिविप्रतिपन्ना ते यदा स्थास्यति निश्चला ।। समाधावचला बुद्धिस्तदा योगमवाप्स्यसि ।। ५३ ।।' -वही अध्याय १२ । -वही। ७७ -वही अध्याय २ । 19C -वही। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001732
Book TitleJain Darshan me Samatvayog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyvandanashreeji
PublisherPrem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
Publication Year2007
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Yoga, & Principle
File Size7 MB
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