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समत्वयोग का तुलनात्मक अध्ययन
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ने भी गीता को साम्ययोग का शास्त्र कहा है।
५.१.२ महाभारत में समत्वयोग
उपनिषदों के समान ही हिन्दू धर्मदर्शन के पौराणिक साहित्य में भी समत्वयोग की विस्तृत चर्चा उपलब्ध होती है। श्रीमद्भागवत में तो यह कहा गया है कि समत्व की आराधना ही अच्युत या परमात्मा की आराधना है। इसी तथ्य को महाभारत के शान्तिपर्व में भी अभिव्यक्त किया गया है। उसमें कहा गया है कि सुख-दुःख आदि सभी स्थितियों में और समस्त प्राणियों में परमात्मा समभाव से स्थित हैं। इस प्रकार महाभारत में यह स्वीकार किया गया है कि परमात्मा सभी प्राणियों में समत्वरूप से उपस्थित है। यही कारण है कि समत्व की साधना को परमात्मा की उपासना माना जाता है।०
महाभारत में समत्वयोग के स्वरूप का सुन्दर विवेचन हमें शान्तिपर्व में मिलता है। उसमें कहा गया है कि जिसने ममता और अहंकार का त्याग कर दिया है, जो शीत, उष्ण आदि द्वन्द्वों को समभाव से सहता है; जिसके संशय दूर हो गये हैं; जो कभी क्रोध और द्वेष नहीं करता, झूठ नहीं बोलता, किसी की गाली सुनकर और मार खाकर भी उसका अहित नहीं सोचता, सब पर मित्रभाव ही रखता है; जो मन, वाणी और कर्म से किसी जीव को कष्ट नहीं पहुँचाता और समस्त प्राणियों पर समभाव रखता है;२ वही समत्वयोगी ब्रह्मभाव को प्राप्त करता है। जो किसी वस्तु की न इच्छा करता है, न अनिच्छा ही करता है - जीवन निर्वाह के लिए
७६ 'गीताई'।
-विनोबा । 'समः सर्वेषु भूतेषू ईश्वरः सुखदुःखयोः । महान् महात्मा सर्वात्मा नारायण इति श्रुति ।। ३४५ ।।'-महाभारत शान्तिपर्व अध्याय २८ । 'निर्ममश्चानहंकारो निर्द्वन्द्वश्छिन संशयः । नैव क्रुद्धयति न द्वेष्टि नानृता भाषते गिरः ।। ३४ ।। - महाभारत शान्तिपर्व अध्याय २६ । 'आक्रुष्ट स्ताडितश्चैव मैत्रेण ध्याति नाशुभम् । वाग्दण्डकमै मनसां त्रयाणां च निवर्तकः ।। ३५ ।।'
-वही ।
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