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समत्वयोग का तुलनात्मक अध्ययन
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प्रत्येक परिस्थिति में दृष्टाभाव से जीता है, सभी के प्रति समभाव रखता है; वही मुक्तात्मा है । वही परम योगी है, में जो सुख-दुःख समभाव रखता है । ६६ वही व्यक्ति परमात्मपद की प्राप्ति कर सकता है, जो समत्व बुद्धि से अपनी इन्द्रियों को संयमित कर सभी प्राणियों के प्रति कल्याण की भावना रखता है । ७ जो शुभ - अशुभ सम्पूर्ण कर्मों के फल का त्यागी है, न कभी हर्षित होता है, न द्वेष करता है, न शोक करता है और न कामना करता है और इस प्रकार समभाव में जीता है, वह भक्तियुक्त व्यक्ति सभी का प्रिय बन जाता है । जो ईश्वर के ध्यान में निरन्तर तल्लीन रहता है, स्वयं की निन्दा और स्तुति में समभाव रखता है, शरीर का निर्वाह ममत्व रहित होकर करता है; वह स्थिर बुद्धिवाला पुरूष सभी को प्रिय है । ६६ जो शरीर की डाँवाडोल स्थिति में भी परमात्मा को ज्यों का त्यों देखता है; वही समत्व की साधना करता है जो पुरुष शरीर का नाश होने पर भी अपनी आत्मा को अखण्ड, अविनाशी, अजर एवं अमर मानता है; वही परमगति को पाने का अधिकारी है । ७१
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समत्व-दर्शन यथार्थ ज्ञान का अनिवार्य अंग है तथा समदर्शी ही सच्चा पण्डित या ज्ञानी है । ७२ ज्ञान की सार्थकता और ज्ञान का
चात्मनि ।
समदर्शनः ।। २६ ।।'
विजितेन्द्रियः ।
प्रियः ।। १७ ।।
'सर्वभूतस्थमात्मानं सर्वभूतानि सर्वत्र ईक्षते योगयुक्तात्मा 'ज्ञानविज्ञानतृप्तात्मा कूटस्थो युक्त इत्युच्यते योगी समलोष्ट्राश्मकांचनः ।। ८ ।।' ६८ 'यो न हृष्यति न द्वेष्टि न शोचति न कांक्षति । शुभाशुभपरित्यागी भक्तिमान्यः स मे 'तुल्यनिन्दास्तुतिर्मौनी संतुष्टो येन अनिकेतः स्थिरमतिर्भक्तिमान्मे प्रियो 'समं सर्वेषु भूतेषु तिष्ठन्तं परमेश्वरम् । विनश्यत्स्वविनश्यन्तं यः पश्यति स पश्यति ।। २८ ।।' ७१ 'समं पश्यन्हि सर्वत्र समवस्थितमीश्वरम् । न हिनस्त्यात्मनात्मानं ततो याति परां 'विद्याविनयसंपत्रे ब्राह्मणे गवि शुनि चैव श्वपाके च पण्डिताः
नरः ।। १६ ।। '
गतिम् ।। २६ ।।' हस्तिनि । समदर्शिनः ।। १८ ।। '
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केनचित् ।
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-वही ।
वही ।
-वही अध्याय १२ ।
-वही ।
- वही अध्याय १३ |
-वही ।
गीता अध्याय ५ ।
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