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________________ समत्वयोग की वैयक्तिक एवं सामाजिक साधना ३१७ पर भी आसक्त, दम्भी और आकांक्षी होने से उसके लिए धर्मध्यान असम्भव होता है। ध्यान की सम्भावना वेश से साधु या गृहस्थ होने पर नही; वह व्यक्ति के चित्त की निराकुलता या अनासक्ति पर निर्भर होती है। जिसका चित्त अनासक्त या निराकुल है, फिर चाहे वह मुनि हो या गृहस्थ, इससे कोई अन्तर नहीं होता। ध्यान का अधिकारी वही है, जिसका चित्त आकांक्षा-रहित, निराकुल और अनुद्विग्न हो। चित्त जितना विशुद्ध होगा, ध्यान उतना ही स्थिर होगा। प्राचीन आगमों स्थानांगसूत्र, समवायांग, भगवतीसूत्र तथा झाणाज्झयण (ध्यानशतक) और तत्वार्थसूत्र में ध्यान के चार विभाग किये गए है। किन्तु उनमें कहीं भी ध्यान के पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्थ और रूपातीत - इन चार प्रकारों की चर्चा नहीं है; जबकि परवर्ती साहित्य में इनकी विस्तृत चर्चा मिलती है। सर्वप्रथम इनका वर्णन योगिन्दुदेव के योगसार और देवसेन के भावसंग्रह में किया गया है।२३७ मनि पद्मसिंह ने ज्ञानसार में अर्हन्त के सन्दर्भ में धर्मध्यान के अन्तर्गत् पिण्डस्थ, पदस्थ और रूपस्थ ध्यान की चर्चा की है।२३८ टीकाकार ब्रह्मदेव ने बताया है कि जो ध्यान मंत्र वाक्यों के द्वारा होता है, वह पदस्थ है; जिस ध्यान में 'स्व' या आत्मा का चिन्तन होता है, वह पिण्डस्थ है; जिसमें चेतन-स्वरूप का विचार किया जाता है, वह रूपस्थ है तथा निरंजन व निराकार का ध्यान ही रूपातीत है।३६ अमितगति ने श्रावकाचार में इन चार ध्यानों २३७ (क) स्थानांगसूत्र ४/१४६ । (ख) समवायांगसूत्र ४ । (ग) भगवतीसूत्र २५/७ । (घ) ध्यानशतक २ । (च) तत्त्वार्थसूत्र ६/२८ । (छ) योगसार ६८ । -योगिन्दुदेव (बम्बई १६३७) । २३८ ज्ञानसार पद्मसिंह टीका १८/२८ (त्रिलोकचन्द्र, सूरत सम्वत् २४२०) । २३६ (क) पदस्थ मंत्रवाक्य गाथा ४८ । (ख) योगप्रदीप १३८ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001732
Book TitleJain Darshan me Samatvayog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyvandanashreeji
PublisherPrem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
Publication Year2007
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Yoga, & Principle
File Size7 MB
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