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________________ ३१६ जैनदर्शन में समत्वयोग की साधना वस्तु पर केन्द्रित करना ध्यान है। यद्यपि भगवतीआराधना में एक ओर चिन्ता निरोध से उत्पन्न एकाग्रता को ध्यान कहा गया है, तो दूसरी ओर राग-द्वेष और मिथ्यात्व से रहित होकर वस्तु की यथार्थता का बोध होने को ध्यान बताया है।२३' आचार्य कुन्दकुन्द पंचास्तिकाय में ध्यान को स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि दर्शन और ज्ञान से परिपूर्ण अन्य द्रव्य के संसर्ग से रहित चेतना की जो अवस्था है, वह ध्यान है।२३२ । __ जैन दार्शनिकों की दृष्टि में प्राथमिक स्तर पर ध्यान के लिए किसी ध्येय या आलम्बन का होना आवश्यक है, क्योंकि बिना आलम्बन के चित्त की वृत्तियों को केन्द्रित करना सम्भव नहीं होता है। हमारा ध्यान राग की ओर न होकर विराग की ओर होना चाहिए। चित्त के विक्षोभों को दूर करके समाधिलाभ या समताभाव को प्राप्त करना प्रशस्त ध्यान है। जैन दार्शनिकों ने ध्यान के आलम्बन के रूप में वीतराग परमात्मा को ध्येय के रूप में स्वीकार किया है।२३३ चाहे ध्यान पदस्थ हो या पिण्डस्थ, रूपस्थ हो या रूपातीत, ध्येय तो परमात्मा ही हैं। जैन धर्म में आत्मा और परमात्मा भिन्न नहीं हैं। आत्मा की शुद्ध दशा ही परमात्मा है।२३४ इसलिए जैनदर्शन में ध्याता और ध्येय अभिन्न हैं। साधक आत्मा ध्यान साधना में अपने ही शुद्ध स्वरूप को ध्येय बनाती है। आत्मा, आत्मा के द्वारा आत्मा का ही ध्यान करती है।२३५ जिस परमात्मस्वरूप को ध्याता ध्येय के रूप में स्वीकार करता है, वह उसका अपना ही शुद्ध स्वरूप है।३६ वस्तुतः चाहे साधु हो या गृहस्थ, धर्मध्यान सम्भव होने के लिए उसका निर्लिप्त होना आवश्यक है। दूसरी ओर मुनि वेश में होने १५१ भगवतीआराधना - ध्यानशतक प्रस्तावना पृ. २६ । २३२ 'दंसणणाणसमग्गं झाणं णो अण्णदबसंजुत्तं । जायदि णिज्जरहेदू सभावसहिदस्स साधुस्स ।। १५२ ।।' -पंचास्तिकाय । २३३ (क) ज्ञानार्णव ३२/६४ एवं ३६/१-८ (ख) मोक्खपाहुड १६/२० । २३४ 'अप्पासो परमप्पा ।। १६० ।।' -उद्धृत् सामायिकसूत्र । २३५ तत्त्वानुसासन (सिद्धसेनगणि प्रकाशन, सूरत १६३०) । * मोक्खपाहुड अष्टप्राभृत ३२ । -कुन्दकुन्द (श्रीमद्राजचन्द्र आश्रम, आगरा १६६६) । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001732
Book TitleJain Darshan me Samatvayog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyvandanashreeji
PublisherPrem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
Publication Year2007
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Yoga, & Principle
File Size7 MB
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