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________________ समत्वयोग की वैयक्तिक एवं सामाजिक साधना केन्द्रित होना है। २२६ चेतना जिस विषय पर केन्द्रित होती है, उससे प्रशस्त या अप्रशस्त दोनो ही ध्यान हो सकते हैं । अप्रशस्त ध्यान के दो स्वरूप माने गये है : १. आर्त; और प्रशस्त ध्यान के भी दो रूप माने १. धर्म; और २. रौद्र । गये हैं : २. शुक्ल । २२७ जब चेतना किसी वस्तु को प्राप्त करने के लिए उसमें राग या आसक्ति वश डूब जाती है और यदि वह वस्तु प्राप्त नहीं होती, तो उसकी चिन्ता में चित्त का डूबना ही आर्तध्यान है । जब किसी उपलब्ध वस्तु का वियोग होता है, तो उसे बार बार स्मरण या उसकी चिन्ता करना रौद्र ध्यान है । २२८ इस प्रकार आर्तध्यान रागमूलक होता है और रौद्रध्यान द्वेषमूलक । ये दोनों ध्यान संसारजनक हैं एवं राग- - द्वेष के निमित्त उत्पन्न होने के कारण अप्रशस्त माने गये हैं । इनके विपरीत धर्मध्यान और शुक्लध्यान प्रशस्त माने गये हैं । स्व-पर के लिए कल्याणकारी विषयों पर चित्तवृत्ति का स्थिर होना धर्मध्यान है । यह लोक मंगल और आत्म विशुद्धि का साधक होता है। इन दोनों ध्यानों से चित्तवृत्ति शुभ-अशुभ भावों से ऊपर उठ जाती है। इनसे आत्मा निर्मल, निश्चल और निर्विकल्प अवस्था को प्राप्त कर लेती है । ध्यानस्तव में चित्तवृत्ति का स्थिर होना अर्थात् मन की एकाग्रता को प्राप्त होना ही ध्यान कहा गया है। इसके विपरीत जो मन विचारशील होता है, उसे भावना, अनुप्रेक्षा अथवा चिन्ता कहा जाता है। २२६ तत्त्वार्थसूत्र में ध्यान को परिभाषित करते हुए कहा गया है कि अनेक अर्थों को आलम्बन देने वाली चिन्ता का निरोध ध्यान है । २३० दूसरे शब्दों में चित्त को अन्य विषयों से हटाकर किसी एक २२८ २२६ २३० २२६ 'उत्तमसंहननस्यैकाग्रचिंता निरोधो ध्यानम् ।। २७ ।। ' - तत्त्वार्थसूत्र पं. सुखलालजी वाराणसी १६७६ । २२७ ‘आर्तममनोज्ञानां सम्प्रयोगे तद्विप्रयोगाय स्मृतिसमन्वाहारः ।। ३१ ।। ' - तत्त्वार्थसूत्र ६ ( पं. सुखलाल संघवी ) । ३१५ तत्त्वार्थसूत्र ६ / ३६ (पं. सुखलाल संघवी ) । ध्यानस्तव २ ( जिनभद्र प्र. वीर मुन्दिर ) । 'उत्तमसंहननस्यैकाग्रचिन्तानिरोधो ध्यानम् ।। २७ ।।' Jain Education International - तत्त्वार्थ सूत्र ६ ( पं. सुखलाल संघवी १६७६ ) | For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001732
Book TitleJain Darshan me Samatvayog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyvandanashreeji
PublisherPrem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
Publication Year2007
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Yoga, & Principle
File Size7 MB
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