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जैनदर्शन में समत्वयोग की साधना
होती है।२२३ सम्यग्ज्ञान से वस्तु स्वरूप का यथार्थ बोध होता है। सम्यग्दर्शन से तत्त्व श्रद्धा उत्पन्न होती है। सम्यक्चारित्र से आनव का निरोध होता है। किन्तु इन तीनों से मुक्ति सम्भव नहीं होती। मुक्ति का अन्तिम कारण तो निर्जरा ही है। सम्पूर्ण कर्मों की निर्जरा हो जाना ही मुक्ति है और कर्मों की निर्जरा तप से होती है। ध्यान एक प्रकार का उत्कृष्ट तप है, जो आत्मशुद्धि का अन्तिम कारण है। ___ध्यान जब अपनी पूर्णता पर पहुँचता है, तो व्यक्ति समाधिमय बन जाता है। ध्यान की इस निर्विकल्प दशा को न केवल जैनदर्शन ने ही स्वीकार किया, अपितु सभी धर्मों ने स्वीकार किया है। ___सर्वार्थसिद्धि और तत्त्वार्थवार्तिक में समाधि के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि जिस प्रकार कोष्टागार में लगी हुई आग को शान्त करना आवश्यक है, उसी प्रकार मुनिजीवन के शीलव्रतों में लगी हुई वासना या आकांक्षा रूपी अग्नि का प्रशमन करना आवश्यक है। यही समाधि है। धवला में आचार्य वीरसेन ने ज्ञान, दर्शन और चारित्र में सम्यक् अवस्थिति को ही समाधि कहा है। वस्तुतः चित्तवृत्ति का उद्वेलित होना ही असमाधि है। ध्यान चित्त की निष्कम्प अवस्था या समत्वपूर्ण स्थिति है। अतः ध्यान और समाधि समानार्थक है। फिर भी ध्यान समाधि का साधन है और समाधि साध्य है।२२४ योगदर्शन के अष्टांग योग में समाधि के पूर्व चरण को ध्यान स्वीकार किया है। ध्यान जब सिद्ध होता है तभी वह समाधि बनता है। वस्तुतः दोनों एक ही हैं।२२५ ध्यान की पूर्णता समाधि में है। यद्यपि दोनो में ही चित्तवृत्ति की निष्कम्पता या समत्व की स्थिति आवश्यक है। एक में समत्व का अभ्यास होता है और दूसरे में वह अवस्था सहज होती है। __ वस्तुतः जहाँ चित्त की चंचलता समाप्त होती है, वहीं साधना की पूर्णता है और वही पूर्णता ध्यान है।
ध्यान शब्द का सामान्य अर्थ चेतना का किसी एक बिन्दु पर
२२३ 'नाणेण जाणई भावे, दंसणेण य सद्दहे । __चरित्तेण निगिण्हाइ, तवेण परिसुज्झई ।। ३५ ।।' २२४ तत्त्वार्थवार्तिक ६/२४/८ । २२५ योगः समाधि ६/१/१२ ।
-उत्तराध्ययनसूत्र अध्ययन २८ ।
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