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________________ ३०४ जैनदर्शन में समत्वयोग की साधना कि परमात्मा के उपदेश से जिन श्रावकों के चित्त में करुणा रूपी अमृत से परिपूर्ण जीवदया प्रकट नहीं होती है, उनके जीवन में धर्म कहाँ से हो सकता है। जीवदया या करुणा धर्म रूपी वृक्ष जड़ है। वह व्रतों का आधार है - सद्गुणों की निधि है। इसलिये विवेकीजनों को सदैव करुणा करनी चाहिये।२०० समत्वयोग का साधक सदैव यही भावना रखता है कि मेरे जीवन में दुःखी या पीडित जनों के प्रति सदैव करुणा भाव बना रहे। जैनदर्शन में समत्व के लक्षणों की चर्चा करते हुए स्पष्ट रूप में कहा गया है कि अनुकम्पा के अभाव में सम्यक्त्व नहीं होता है। दूसरों के दुःखों के निवारण करने की वृत्ति का विकास हुए बिना समत्वयोग की साधना भी सम्भव नहीं है। जीवन में जब तक करुणा, दया या अनुकम्पा प्रकट नहीं होती, तब तक सम्यग्दर्शन की उपलब्धि भी नहीं होती और सम्यग्दर्शन की प्राप्ति के बिना सम्पूर्ण धर्म साधना निरर्थक हो जाती है। समत्वयोग के साधक के लिये यह आवश्यक है कि वह आत्मतुला के आधार पर दूसरों की पीड़ा को अपनी पीड़ा मानकर उसे दूर करने का प्रयत्न करें। दूसरों के दुःखों को दूर करने की इच्छा ही करुणा है। आचार्य हरिभद्र ने अष्टकप्रकरण में करुणा को परिभाषित करते हुए बताया है कि भयभीत याचक और दीनजनों के प्रति उपकार बुद्धि ही करुणा कही जाती है। दूसरों का हित या मंगल करने की भावना ही करुणा है।०१ समत्वयोग की साधना में करुणा का बहुत ही महत्त्वपूर्ण स्थान है; क्योंकि समत्वयोग और करुणा दोनों का आधार आत्मोपम्य का भाव है। जो साधक पर की पीड़ा ३०१ २०० 'येषां जिनोपदेशेन कारूण्यामष्तपूरिते । चित्तो जीवदया नास्ति, तेषां धर्मः कुतो भवेत् ।। ३७ ।।' मूलं धर्मतरोराद्या व्रतानां धाम सम्पदाम् । गुणानां निधिरित्यंगिदया कार्या विवेकिभिः ।। ३८ ।।' -पद्मानन्दि पंचविंशतिका अध्ययन ६ । (क) 'दीनेष्वार्तेषु भीतेषु याचमानेषु जीवितम् । उपकारपरा बुद्धिः कारूण्यमभिधीयते ।।' -आचार्य हरिभद्र, अष्टक प्रकरण । (ख) अभिधानराजेन्द्रकोष खण्ड ४ पृ. २६७२ । (ग) 'दीनेष्वार्तेषु भीतेषु याचमानेषु जीवितम् । प्रतीकारपरा बुद्धिः, कारुण्यमभिधीयते ।। १२० ।।' -योगशास्त्र ४ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001732
Book TitleJain Darshan me Samatvayog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyvandanashreeji
PublisherPrem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
Publication Year2007
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Yoga, & Principle
File Size7 MB
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