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________________ समत्वयोग की वैयक्तिक एवं सामाजिक साधना को आत्मतुल्य नहीं मानता है, वह समत्वयोग की साधना नहीं कर सकता। दूसरों को दुःखी या पीड़ित देखकर जिसकी आंखों में आंसू न हों, जिसके हाथ सेवा के लिये तत्पर न हों, वह समत्वयोगी नहीं कहा जा सकता । करुणा या पर- दुःख - कातरता के अभाव में समत्वयोग की साधना सम्भव ही नहीं है । समत्वयोग का साधक लोक कल्याण के लिये सदैव तत्पर रहता है। जैन धर्म में तीर्थंकर भी लोक कल्याण के लिये प्रयत्न करते हैं । समत्वयोग की साधना लोक मंगल की साधना ही है । जो चित्त दूसरों को पीड़ित व दुःखी देखकर करुणा से आर्द्र नहीं होता, वह समत्वयोग की साधना नहीं कर सकता । करुणा के विकास के लिये समभाव या आत्मवत् दृष्टि का विकास आवश्यक है । आत्मोपम्य की साधना के बिना करुणा की साधना सम्भव नहीं है और आत्मोपम्य की साधना के लिये समत्व का विकास आवश्यक है । जो सभी प्राणियों को आत्मवत् समझेगा वही दूसरों की सेवा के लिये तत्पर होगा । जैसा कि महाभारत में कहा गया है कि जिस प्रकार मुझे अपने प्राण अभीष्ट - प्रिय हैं, वैसे ही समस्त प्राणियों को भी अपने प्राण प्रिय हैं। इसी कारण सज्जन पुरुष आत्मोपम्य भाव से प्राणीमात्र पर करुणा और दया करते हैं । .२०२ संसार में सबको सर्वत्र सुख-शान्ति, निरोगता, धनसम्पन्नता आदि हो; किसी को किसी प्रकार का कष्ट न हो, ऐसा सम्भव नहीं है। संसार में अनेक प्राणी पीड़ा, व्यथा, कष्ट और दुःख से आक्रान्त देखे जाते हैं। किसी को पारिवारिक सदस्यों के कारण दुःख है, तो किसी को सामाजिक और राजनैतिक अन्याय आदि के कारण दुःख है; तो कोई रोग, शोक, वियोग, निर्धनता, अव्यवस्था आदि के कारण दुःखी है । समतायोगी साधक उन पीड़ितों के दुःखों का सहृदयता पूर्वक करुणार्द्र भाव से निराकरण करता है। उस समय उसका हृदय संवेदनामय बन जाता है एवं अनुकम्पा भाव जाग जाता है । पाश्चात्य विद्वान बायरन (Byron ) ने लिखा है कि २०२ 'प्राणः यथाऽत्मनोऽभीष्टा भूतानामपि ते तथा । आत्मौपम्येन भूतेषु दयां कुर्वन्ति साधवः ।।' - महाभारत (उद्धृत् 'समत्वयोग : एक समन्वय - दृष्टि' पृ. १०० ३०५ Jain Education International For Private & Personal Use Only -- डॉ. प्रीतम सिंघवी ) । www.jainelibrary.org
SR No.001732
Book TitleJain Darshan me Samatvayog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyvandanashreeji
PublisherPrem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
Publication Year2007
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Yoga, & Principle
File Size7 MB
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