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________________ २६६ जैनदर्शन में समत्वयोग की साधना और आसक्ति के टूटने पर ही जीवन में समत्व का प्रकटन होता है। अतः जो भी साधक जीवन में समत्व की साधना करना चाहता है, उसे इन भावनाओं का चिन्तन अवश्य करना चाहिये। चार भावनाएँ समत्व की साधना का मुख्य लक्ष्य तो व्यक्ति की आसक्ति या रागात्मकता को समाप्त करना है, क्योंकि राग ही ऐसा तत्त्व है, जो हमारी चेतना के समत्व को भंग करता है। किन्तु इसके साथ ही समत्व की साधना का दूसरा लक्ष्य सामाजिक जीवन में समन्वय और संवाद स्थापित करना है। व्यक्ति का ममत्व टूटे और वैयक्तिक तथा सामाजिक जीवन में समता का अभ्युदय हो, यही समत्वयोग की साधना मुख्य लक्ष्य है। जैन परम्परा में इसके लिये चार भावनाओं और बारह अनुप्रेक्षाओं को स्वीकार किया गया है। चार भावनाओं के नाम हैं - मैत्री, प्रमोद, कारूण्य और माध्यस्थ। बौद्ध परम्परा में इन्हें बह्म विहार भी कहा जाता है। वैसे इनकी चर्चा अन्य परम्पराओं में भी पायी जाती है। __ मैत्री आदि चार भावनाएँ हमें वैयक्तिक जीवन में तनावों से मुक्त रखती हैं। साथ ही वे सामाजिक जीवन में समत्व और सन्तुलन का आधार भी हैं। मैत्री का भाव वैमनस्य का प्रतिरोधी है। व्यक्ति के जीवन में जब तक वैमनस्य का भाव बना रहता है, तब तक वह तनावों से ग्रसित बना रहता है। इसलिये हमें वैयक्तिक जीवन के तनावों से मुक्त रहने के लिये मैत्री भावना को स्थान देना होगा। मैत्री का भाव हमारे चैतसिक समत्व के लिये तो आवश्यक है ही, किन्तु वह सामाजिक जीवन में समता की स्थापना के लिये भी आवश्यक है। समाज के दूसरे सदस्यों के प्रति मैत्री का भाव हो तो सामाजिक जीवन में सन्तुलन बना रहता है। समत्व की साधना के लिये मैत्री की अवधारणा आवश्यक है। न केवल व्यक्तियों के मध्य अपितु परिवारों, समाजों और राष्ट्रों के मध्य भी यदि मैत्री का भाव विकसित होता है, तो ही सामाजिक संघर्षों और राष्ट्र के मध्य होने वाले युद्धों से बचा जा सकता है। मैत्री का भाव ही एक ऐसा तत्त्व है, जो हमारे सामाजिक जीवन में शान्ति की स्थापना कर सकता है और सामाजिक जीवन के संघर्षों को भी समाप्त करता है। उसके परिणामस्वरूप एक ओर चित्त घृणा विद्वेष Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001732
Book TitleJain Darshan me Samatvayog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyvandanashreeji
PublisherPrem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
Publication Year2007
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Yoga, & Principle
File Size7 MB
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