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________________ समत्वयोग की वैयक्तिक एवं सामाजिक साधना २६५ यह आत्मा अनेक योनियों में परिभ्रमण करती हुई अत्यन्त कठिनाई से मानव शरीर प्राप्त करती है। मानव जीवन को प्राप्त करना कितना कठिन है, इसे एक उदाहरण द्वारा इस प्रकार बताया गया है कि यदि हम सम्पूर्ण भारतवर्ष में उपलब्ध किसी एक जाति के अनाज को एकत्रित करके उसके विशाल ढेर में एक सेर सरसों को मिला दें और किसी एक वृद्धा को कहें कि वह पुनः इस सरसों को अलग कर दे - यह जितना दुष्कर कार्य है, उसकी अपेक्षा भी एक बार मनुष्य जन्म को पाकर भी खो देने पर पुनः प्राप्त करना अत्यन्त कठिन है। काश! मनुष्य जन्म भी मिल जाय, तो धर्म श्रवण के अवसर अत्यन्त कठिनाई से प्राप्त होते हैं। सद्भाव में किसी को धर्मश्रवण का अवसर भी मिल जाये, तो उस पर आस्था होना अत्यन्त कठिन है और यदि आस्था उत्पन्न भी हो जाये, तो उसका जीवन में आचरण करना और भी कठिन है। इस प्रकार जीवन में सम्यक् बोध और धर्म साधना का योग अति कठिनाई से प्राप्त होता है। अतः एक बार उपलब्ध होने पर उसका परित्याग नहीं करना चाहिये; क्योंकि सम्यक् बोध को प्राप्त कर उसकी साधना से हमारा विचलन न हो इसलिये अवसर की दुर्लभता को समझना आवश्यक है। मनुष्य जीवन और सन्मार्ग को समझने का यह अवसर उपलब्ध हुआ है। इसे हाथ से न जाने देना ही बोधिदुर्लभ भावना का मुख्य सन्देश है। इस प्रकार हम देखते है कि जैनदर्शन के अन्दर जो बारह अनुप्रेक्षाओं या भावनाओं की चर्चा है, वह निर्वाण या मोक्ष की प्राप्ति का अनुपम साधन है। जैनदर्शन में इन भावनाओं की चर्चा मोक्ष मार्ग की अपेक्षा से ही की गई है। वस्तुतः मोक्ष या निर्वाण की साधना समत्व की ही साधना है, क्योंकि जैनाचार्यों ने मोह और क्षोभ से रहित आत्मा की समत्वपूर्ण स्थिति को ही मोक्ष कहा है। इस प्रकार मोक्ष समत्व की अवस्था है और इस दृष्टि से समत्व की साधना में इन भावनाओं का महत्त्वपूर्ण स्थान है। समत्वयोग की साधना के लिये इन भावनाओं या अनुप्रेक्षाओं का चिन्तन आवश्यक है। इनके चिन्तन से हमारी आसक्ति टूटती है १८७ सूत्रकृतांग २/१/१ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001732
Book TitleJain Darshan me Samatvayog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyvandanashreeji
PublisherPrem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
Publication Year2007
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Yoga, & Principle
File Size7 MB
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