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________________ समत्वयोग की वैयक्तिक एवं सामाजिक साधना २६७ आदि वैभाविक अवस्था से बचता है, तो दूसरी ओर परिवार और समाज के सदस्यों के मध्य सामंजस्य की स्थापना भी होती है। इस प्रकार मैत्री भावना का समत्व की साधना के साथ महत्त्वपूर्ण सम्बन्ध है। __ आचार्य हरिभद्रसूरि ने न केवल इन चार भावनाओं का उल्लेख किया है, अपितु इनके स्वरूप को भी स्पष्ट किया है। वे लिखते हैं कि मैत्री का सामान्य लक्षण ‘परहितचिन्ता मैत्री' अर्थात् दूसरे के हित का विचार करना, कोई भी दु:ख का भाजन न बने, समस्त प्राणी दुःख से मुक्त हो जाये, प्राणी मात्र का कल्याण एवं रक्षण हो, इस प्रकार की भावना मैत्री भावना है।८८ मैत्री भावना अद्वेष की भावना है। सम्यक् रूप से इस भावना को करने पर द्वेष का उपशमन होता है। यह द्वेष को उपशान्त करने का अमोघ उपाय है। मैत्री भावना से वैमनस्य और शत्रुता समाप्त होती है और समत्वयोग की साधना मजबूत होती है। इस प्रकार कलिकाल सर्वज्ञ आचार्य हेमचन्द्रसूरि ने भी योगशास्त्र में इन चार भावनाओं का वर्णन किया है। सिद्धर्षिगणि विरचित मुनि सुन्दरसूरि रचित अध्यात्मकल्पद्रुम में, न्याय विशारद उपाध्याय यशोविजयजी रचित द्वात्रिंशत् द्वात्रिंशिका एवं आचार्य अमितगति रचित सामायिकसूत्र में भी इन चार भावनाओं का वर्णन मिलता है।८० मात्र यही नहीं, मूल आगमों में भी इन भावनाओं के प्रकीर्ण उल्लेख उपलब्ध हैं। समताधिकार के प्रथम श्लोक में ही इन चार भावनाओं का प्रत्यक्ष फल बताते हुए कहा गया है कि जो साधक आत्मवत् भावना से प्रत्येक प्राणी के सुख-दुःख को आत्मसम देखता है, वही समत्वयोगी माना गया है। सभी जीवों के प्रति ऐसे समत्वभाव को सामायिक कहा गया है। १८८ 'परहितचिन्ता मैत्री, परदुःखविनाशिनी तथा करूणा । परसुख तुष्टि मुदिता, परदाषोप्रेक्षणमुपेक्षा ।।१५।।' -हरिभद्रसूरी १६ प्रकरण ४ षोडशक । १६ 'मैत्री-प्रमोद-कारूण्य-माध्यस्थ्यानि नियोजसेत् । धर्मध्यानमुपस्कर्तृ, तद्धि तस्य रसायनम् ।। ११७ ।।' । ___-'योगशास्त्र' प्रकाश ४ । 'सत्तवेषु मैत्री गुणिषु प्रमोदं, क्लिष्टेषु जीवेसु कृपापरत्वम् । मध्यस्थभावं विपरीतवृत्तौः, सदा ममात्मा विदघातु देव ।।' -सामायिकसूत्र पृ. ६२ । १६१ 'भजस्वमैत्री जगदगिराशिषु, प्रमोदमात्मागुणिषु त्वशेषतः । भवार्तदीनेषु कृपारसं सदाप्युदासवृत्तिं खलुनिर्गुणेष्वपि ।। १ ।। -प्रथम समताधिकार । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001732
Book TitleJain Darshan me Samatvayog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyvandanashreeji
PublisherPrem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
Publication Year2007
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Yoga, & Principle
File Size7 MB
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