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________________ २६० जैनदर्शन में समत्वयोग की साधना भाव से धैर्यपूर्वक भोगता है। दुःखों की परिस्थिति में भी वह दूसरों को निमित्त मात्र मानकर उनके प्रति द्वेष नही करता और सुख की परिस्थिति में भी वह पूर्व कर्म का प्रतिफल मानकर किसी प्रकार का अहंकार नहीं करता।७४ ___ इस प्रकार निर्जरा राग-द्वेष की वृत्तियों से ऊपर उठकर पूर्व के उदित कर्मों का क्षय करना और उनके परिणाम के अवसर पर नये बन्ध नहीं होने देना है। पूज्यपाद ने सर्वार्थसिद्धि में कहा है कि कर्मों का आत्मा से अलग हो जाना निर्जरा कहलाती है। कर्मों की निर्जरा दो प्रकार से होती है। अतः निर्जरा के भी दो भेद है : १. सविपाक निर्जरा; और २. अविपाक निर्जरा। कर्म अपनी स्थिति को पूर्ण कर यथा समय उदय में आकर फल देकर अलग हो जाते हैं। जब वे तप के कारण स्थिति पूर्ण हुए बिना ही खिर जाते हैं, तब वह अविपाक निर्जरा कहलाती है। यह व्रतधारियों के होती है। अविपाक निर्जरा ही मोक्ष का कारण है। कर्म पुद्गलों का आत्म प्रदेशों से पूरी तरह से निकल जाना ही निर्जरा है। जैनसिद्धान्तदीपिका में निर्जरा को परिभाषित करते हुए कहा गया है कि 'तपसा कर्मविच्छेदादात्मनैर्मल्यं निर्जराः' अर्थात तपस्या के द्वारा कर्मों का विच्छेद होने पर आत्मा की जो उपलब्धि होती है, वह निर्जरा है। इस परिभाषा के अनुसार तप निर्जरा का कारण है।७५ आत्मा से सम्बद्ध कर्मों का अंश रूप में धीरे-धीरे क्षय होना निर्जरा है। निर्जरा भी एक प्रकार से मोक्ष है। तत्त्वार्थसूत्र में भी कहा गया है कि 'तपसा निर्जरा' अर्थात् तपस्या ही निर्जरा का कारण है। बिना तप के निर्जरा सम्भव नहीं है।७६ अतः जैसे तप के बारह भेद हैं, वैसे ही निर्जरा के भी बारह भेद हैं। १७४ 'जैन, बौद्ध और गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन' भाग २ पृ. ४३० । -डॉ. सागरमल जैन । १७५ सर्वार्थसिद्धि ८/२३ । १७६ तत्त्वार्थसूत्र ६/३ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001732
Book TitleJain Darshan me Samatvayog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyvandanashreeji
PublisherPrem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
Publication Year2007
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Yoga, & Principle
File Size7 MB
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