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________________ समत्वयोग की वैयक्तिक एवं सामाजिक साधना २६१ ___कर्मों का बन्ध और निर्जरा का यह क्रम तो सतत् चला आ रहा है। हम प्रतिक्षण पुराने कर्मों की निर्जरा करते रहते हैं, लेकिन जब तक नवीन कर्मों का सृजन समाप्त नहीं होता, ऐसी निर्जरा से कोई लाभ नहीं होता। जैसे कोई व्यक्ति पुराने ऋण का भुगतान करता रहे, लेकिन नवीन ऋण भी लेता रहे, तो वह ऋण मुक्त नहीं हो पाता। जैन धर्म के अनुसार आत्मा अनादिकाल से सविपाक निर्जरा करती आ रही है, लेकिन निर्वाण का लाभ प्राप्त नहीं कर सकी। आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं कि 'यह चेतन आत्मा कर्म के विपाक काल में सुखद और दुःखद फलों की अनुभूति करते हुए पुनः दुःख के बीज रूप आठ प्रकार के कर्मों का बन्ध कर लेती है।१७७ डॉ. सागरमल जैन बताते हैं कि साधना मार्ग के लिये सर्वप्रथम निर्देश ज्ञानयुक्त बनकर कर्माश्रव का निरोध कर अपने आपको समत्व में स्थिर करना है।७८ संवर या समत्व के अभाव में निर्जरा का कोई मूल्य नहीं है - वह तो अनादिकाल से होती आ रही है। किन्तु भव परम्परा को समाप्त करने में सहायक नहीं हुई। दूसरे में यदि आत्मा संवर का आचरण करती हुई भी इस यथाकाल में होने वाली निर्जरा की प्रतिक्षा में बैठी रहे, तो भी शायद इस कर्म बन्ध से स्वाभाविक निर्जरा के माध्यम से मुक्त हो सके। ऋषिभाषित सूत्र में ऋषि कहता है कि संसारी आत्मा प्रतिक्षण नये कर्मों का बन्ध और पुराने कर्मों की निर्जरा कर रही है। लेकिन तप से होने वाली निर्जरा ही विशेष (महत्त्वपूर्ण) है।७६ आचारांगसूत्र में भी कहा गया है कि तप एक प्रकार की अग्नि है, जिसके द्वारा संचित कर्मों को शीघ्र ही भस्मीभूत किया जा सकता है। जैसे अग्नि जीर्ण काष्ठ को शीघ्र जला डालती है; वैसे ही अनासक्त आत्मा कर्म शरीर को शीघ्र जला डालती है। आत्मा तप के द्वारा परिशुद्ध होती है। लेकिन तप सम्यक् प्रकार से होना १७७ 'वेदंतो कम्मफलं सुहिदो दुहिदो य हवदि जो चेदा । सो तं पुणो वि बंधदि बीयं दुक्खस्स अट्ठविहं ।। ३८६ ।।' -समयसार ६। १७८ 'जैन, बौद्ध और गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन' भाग १ पृ ३६८ । -डॉ. सागरमल जैन । १७६ इसिभासियम् ८/१० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001732
Book TitleJain Darshan me Samatvayog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyvandanashreeji
PublisherPrem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
Publication Year2007
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Yoga, & Principle
File Size7 MB
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