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________________ समत्वयोग की वैयक्तिक एवं सामाजिक साधना २८६ हुए कहा गया है कि जो सूत्र तथा उसके रहस्य को जानकर हाथ, पैर, वाणी तथा इन्द्रियों का यथार्थ संयम रखता है और जो बाह्याभिमुख न होकर आत्माभिमुख होता है, जो समत्व में रत रहता है; वही सच्चा साधक है। संवर मिथ्यात्व नामक महापाप का निरोधक, मिथ्याज्ञानान्धकार का नाशक एवं अनन्तानुबन्धी कषाय का विनाशक है। मिथ्यात्व, अज्ञान और असंयम आस्रवभाव हैं; जबकि वीतराग भाव संवर है। यह संवर ही मुक्तिमार्ग का प्रवेशद्वार है। संवर भावना में भेदविज्ञान ही प्रधान है। बारह भावना एक अनुशीलन में डॉ. हुकमचन्द भारिल्ल ने कहा है कि सम्पूर्णलोक को 'स्व' और 'पर' इन दो भागों में विभक्त करके 'पर' से भिन्न 'स्व' में एकत्व स्थापित करना ही सच्चा भेद विज्ञान है; आत्मानुभूति है; संवर है और संवर भावना का फल है।७२ संवर भावना के द्वारा आत्मा नवीन कर्मों के बन्धन से बच जाती है, जो पूर्वकृत कर्म है, उनका क्षय निर्जरा के द्वारा होता है। अतः इसके पश्चात् निर्जरा भावना का उल्लेख किया जाता है। ६. निर्जरा भावना ____संवर आत्मा में प्रवेश करनेवाले नवीन कर्मों को रोक देता है, लेकिन पुराने कर्मों का क्षय करना उतना ही अनिवार्य होता है, जैसे छिद्रयुक्त नौका के छेद बन्द कर देने पर उसमें भरे हुए पानी को सम्पूर्णतः खाली कर देना।७३ निर्जरा शब्द का अर्थ है जर्जरित कर देना, झाड़ देना अर्थात् आत्मतत्त्व से कर्म पुद्गलों का अलग हो जाना निर्जरा है। पुराने कर्मों को क्षय किये बिना मोक्ष की प्राप्ति नहीं हो सकती है। जैनागमों में पूर्वबद्ध कर्मों के क्षय को ही निर्जरा कहा है। डॉ. सागरमल जैन लिखते हैं कि निर्जरा भावना में साधक उपस्थित सुख-दुःख को पूर्वबद्ध कर्म का प्रतिफल मानकर उसे अनासक्त १७२ १७१ दशवैकालिकसूत्र १०/१५ । १७२ 'बारह भावना : एक अनुशीलन' पृ. ११४ ।। १७३ 'पुवकदकम्म सडणं तु णिज्जरा ।। १८४६ ।।' -डॉ. हुकमचन्द भारिल्ल । -भगवतीआराधना । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001732
Book TitleJain Darshan me Samatvayog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyvandanashreeji
PublisherPrem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
Publication Year2007
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Yoga, & Principle
File Size7 MB
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