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________________ २७८ जैनदर्शन में समत्वयोग की साधना वहीं अन्यत्व भावना पृथक्त्व का बोध कराती है। यह आत्मा-अनात्मा या स्व-पर का विवेक सिखाती है, जो समत्वयोग की साधना हेतु आवश्यक है। अन्यत्व भावना का आशय है कि शरीर से अपनी आत्मा की भिन्नता का विचार करना। मैं शरीर से सर्वथा भिन्न हूँ; क्योंकि शरीर मूर्त अर्थात इन्द्रिय गोचर है और मैं अनिन्द्रियगोचर अमूर्त हूँ। शरीर अनित्य है। वह आयु पूर्ण होते ही विघटित हो जाता है। किन्तु आत्मा तो नित्य है। वह कभी नष्ट नहीं होती।२४ . अन्यत्व भावना का स्वरूप स्पष्ट करते हुए आचार्य कुन्दकुन्द लिखते है कि आत्मा ज्ञान-दर्शन स्वरूप है और शरीरादिक सभी बाह्यपदार्थ इससे भिन्न है। इस प्रकार चिन्तन करना अन्यत्व भावना है।२५ इसी प्रकार कार्तिकेयानुप्रेक्षा में बताया गया है कि जो देहादिक परद्रव्यों से भिन्न अपने नित्यज्ञानानन्द स्वरूप का अनुभव करता है, उसके लिये अन्यत्व भावना कार्यकारी बनती है।२६। इसी सन्दर्भ में ज्ञानार्णव में शुभचन्द्र लिखते हैं कि जब देह और प्राणी में अत्यन्त भिन्नता है, तो बहिरंग जो कुटुम्बादिक हैं, उनसे एकता कैसे हो सकती है? क्योंकि ये प्रत्यक्ष भिन्न दिखाई देते हैं।१२७ - देह से आत्मा के अन्यत्व को श्रीमदराजचन्द्र ने एक उदाहरण द्वारा प्रस्तुत किया है। अनादिकाल से आत्मा का देह के साथ संयोग सम्बन्ध रहा है। अतः जीव देह को आत्मा मान लेता है, परन्तु जैसे म्यान में रहते हुए भी तलवार म्यान से पृथक है, उसी प्रकार देह में रहते हुए भी आत्मा देह से भिन्न है।२८ आचार्य अमितगति भी जीव से भिन्न देहादि संयोगों पर से दृष्टि हटा लेने के लिये सामायिक पाठ में कहते हैं कि जिस आत्मा - -बारसअणुवेक्खा । १२४ तत्त्वार्थधिगमसूत्र पृ. ३६७ । १२५ 'अण्णं इम। सरीदादिगं पि ज होज्जेबाहिरं दव्वं । णाणं दंसणमादा एवं चिंतेहि अण्णत्तं ।। २३ ।।' १२६ 'जो जाणिऊण देहं, जीवसरूवादु तच्चदो भिण्णं । अप्पाणं पि य सेवदि, कज्जकरं तस्स अण्णत्तं ।। ६२ ।।' १२७ 'अन्यत्वमेव देहेन स्याभृशं यत्र देहिनः । तत्रैक्यं बन्धुभिः सार्धं बहिरङ्गः कुतो भवेत् ।। ७ ।।' १२८ आत्मसिद्धिशास्त्र ५ । कार्तिकेयानुप्रेक्षा । ज्ञानार्णव सर्ग २ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001732
Book TitleJain Darshan me Samatvayog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyvandanashreeji
PublisherPrem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
Publication Year2007
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Yoga, & Principle
File Size7 MB
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