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________________ समत्वयोग की वैयक्तिक एवं सामाजिक साधना २७७ को अपने निज वैभव रूप दिखाया है और 'पर' के साथ सम्बन्ध असत् है, विसंवाद पैदा करनेवाला बताया है।२१ एकत्व की प्रतीति में स्वाधीनता का स्वाभिमान जाग्रत होता है, स्वावलम्बन की भावना प्रबल होती है और चित्तवृत्ति सहज स्वभाव समत्व के सन्मुख होती है तथा समत्व दृढ़ या निश्चल बनता है। एकत्व भावना के चिन्तन से जो उल्लास/आनन्दातिरेक जीवन में प्रस्फटित होना चाहिये - दिखाई देना चाहिये, वह बहुत ही कम देखने को मिलता है और अज्ञानी व्यक्ति तो अकेलेपन से चित्त को असन्तुलित बना लेता है, जिससे अन्तरंग शान्ति भंग होती है। विनयविजयजी लिखते हैं कि “हे आत्मन्! तू समतायुक्त इस एकत्व अनुप्रेक्षा का अनुचिन्तन कर, जिससे तू नमिराजा की शान्ति अर्थात् परम आनन्द की सम्पत्ति को उपलब्ध कर सके।"१२२ । आचार्य पूज्यपाद एकत्वानुप्रेक्षा का प्रयोजन और फल बताते हुए लिखते हैं कि इस प्रकार चिन्तन करते हुए जीव को स्वजनों में प्रीति का अनुबन्ध नहीं होता और परजनों में द्वेष का अनुबन्ध नहीं होता। इसलिये वह निःसंगता को प्राप्त होकर, समत्व में स्थिर बनकर मोक्ष प्राप्त करने का प्रयत्न करता है। ___ आत्मा का अकेलपान अभिशाप नहीं, वरदान है। व्यक्ति को अकेलापन अच्छा नहीं लगता। वस्तुतः गहराई से चिन्तन करें, तो वहीं आनन्द का धाम है। उसकी प्रतीति ही आत्मा का अन्तिम विराम है - समत्व से जुड़ने का आयाम है। यह भावना समत्व को दृढ़ बनाती है और ज्ञान के घनपिण्ड, आनन्द के कन्द, शान्ति के सागर, निजपरमात्म तत्त्व को पहचान कर उसी में लीन बनने का सन्देश देती है। ५. अन्यत्व भावना एकत्व भावना जहाँ व्यक्ति को एकत्व की अनुभूति कराती है, समयसार गाथा ५/४ । १२२ 'एकतां समतोपेतामेनामात्मन् विभावय ! लभस्य परमानन्द सम्पदं नमिराजवत् ।। २३ ।।' -शान्तसुधारस । १२३ ‘एवं ह्यस्य भावयतः स्वजनेषु प्रीत्यनुबन्थो न भवति । परजनेषु च द्वेषानुबन्थो नोपजायते ।। ततो निःसंगतामभ्युपगतो मोक्षयैव घटते ।' -सर्वार्थसिद्धि अध्याय ६ सूत्र ७ की टीका । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001732
Book TitleJain Darshan me Samatvayog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyvandanashreeji
PublisherPrem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
Publication Year2007
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Yoga, & Principle
File Size7 MB
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