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जैनदर्शन में समत्वयोग की साधना
परिस्थिति में सदा अकेला ही रहता है, कोई दूसरा साथ नहीं देता - यह विचार करना ही एकत्व भावना है।५ ज्ञानार्णव के अनुसार भी आत्मा अकेली ही स्वर्ग में जाती है, अकेली ही नरक में जाती है, अकेली ही कर्म बाँधती है और अकेली ही केवलज्ञान पाकर मोक्ष में जाती है।”६
_ 'आप अकेला अवतरे, मरे अकेला होय।
कबहूँ या जीव को, साथी सगा न कोय।।' जन्म से लेकर मृत्यु तक प्रत्येक परिस्थिति में आत्मा का अकेलापन दर्शाया गया है। इसी प्रकार आचार्य पूज्यपाद ने भी बताया है कि साथी की खोज कभी सफल होने वाली नहीं है; परद्रव्यों का संयोग है, पर साथ नहीं। परद्रव्य संयोगी हैं, परन्तु साथी नहीं।”८ एकत्व भावना में संयोगों के प्रति ममत्व भाव नहीं रखने का निर्देश और अपने अकेलेपन (एकत्व) की स्वीकृति है। चित्त में अकेलेपन का चिन्तन करना ही एकत्व भावना है। एकत्व के चिन्तन प्रवाह को देखने के लिये कविवर गिरधर ने निम्नांकित छन्द का उल्लेख किया है :
'आये है अकेले और जायेंगे अकेले,....' इस छन्द में अकेलेपन की अनुभूति का तरल प्रवाह है। साथ ही सम्यग्दिशानिर्देश भी है। अकेलापन ही एकत्व है।"६ एकत्व भावना के सन्दर्भ में यह भी कहा गया है कि दस लाख योद्धाओं पर विजय प्राप्त करने की अपेक्षा स्वयं की आत्मा पर विजय प्राप्त करना परम विजय है।०
आचार्य कुन्दकुन्द ने सम्पूर्ण समयसार एकत्व-विभक्त आत्मा के प्रतिपादन को ही समर्पित किया है। उन्होंने एकत्व-विभक्त आत्मा
११५ 'एकाकी चेतन सदा, फिर सकल संसार ।
साथी जीव न दूसरो, यह एकत्व विचार ।।' -बारह भावना : एक अनुशीलन पृ. ६३ । 'स्वयं स्वकर्मनिर्वृत्तं फलं भोक्तुं शुभाशुभम् । शरीरान्तरमादत्ते एकः सर्वत्र सर्वथा ।। २ ।।'
ज्ञानार्णव सर्ग २। 16 बारह भावना : एक अनुशीलन पृ. ६३ । १८ सर्वाथसिद्धि ६/७/८०२ ।
कविवर गिरधर कृत पृ. ६५ । उत्तराध्ययनसूत्र २३/३६ ।
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