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________________ समत्वयोग की वैयक्तिक एवं सामाजिक साधना २७५ अशरणता एवं संसार में संयोगों की निरर्थकता का वर्णन किया गया है। अब संयोगों या 'पर' से दृष्टि हटाकर उसे स्वभाव की ओर करना है। इस संसार की असारता को जानकर सारभूत निज शुद्धात्मा की आराधना करना है। इस प्रकार संसार स्वरूप का पुनः पुनः विचार करना संसारानुप्रेक्षा है। संसार परिभ्रमण को दुःखरूप जानकर और उससे विरक्त होकर ही समत्व की सच्ची साधना सम्भव होती है। संसार भावना ही हमारे ममत्व के विसर्जन और समत्व के सर्जन में सहायक होती है। ४. एकत्व भावना संसार में रहते हुए भी 'स्व' की स्वतन्त्र स्थिति का बोध करना एकत्व भावना है। एकत्व भावना का अर्थ है प्राणी अकेला जन्म लेता है और अकेला ही मरता है। अपने शुभाशुभ कर्मों को भी वह अकेला ही भोगता है।” मृत्यु के समय समस्त संसारिक धन-वैभव तथा कुटुम्ब को छोड़कर व्यक्ति अकेला ही प्रयाण करता है। एक संस्कृत कवि ने कहा है कि धन भूमि में, पशु पशुशाला में, स्त्री गृहद्वार तक, स्नेहजन शमशान तक और देह चिता तक रह जाती है और प्राणी अकेला ही अपने शुभाशुभ कर्मों के साथ परलोक गमन करता है।१२ कार्तिकेयानुप्रेक्षा में बताया है कि एक ही जीव नाना पर्यायों को धारण करता है; वही जीव पुण्य करके स्वर्ग में जाता है और वही जीव कर्मों का क्षय करके मोक्ष में जाता है।१३ शान्तसुधारस में भी बताया गया है कि मनुष्य अकेला ही जन्म लेता है, अकेला ही मरता है, अकेला ही कर्मों का संचय करता है और अकेला ही वह उनका फल भोगता है। बारह भावना : एक अनुशीलन में बताया गया है कि सम्पूर्ण संसार में परिभ्रमण करता हुआ यह जीव प्रत्येक ” कुन्दकुन्दाचार्य की सूक्तियाँ । १२ सुक्ति संग्रह । १३ 'इक्को जीवो जायदि, इक्को गभम्मि गिहदे देहं । इक्को बाल जुवाणो इक्को वुढो जरागहिओ ।। ७४ ।।' ११४ 'एक उत्पद्यते तनुमानेक एव विपद्यते ।। एक एव हि कर्म चिनुते, स एककः फलमश्नुते ।।' -कार्तिकेयानुप्रेक्षा। -शान्तसुधारस । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001732
Book TitleJain Darshan me Samatvayog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyvandanashreeji
PublisherPrem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
Publication Year2007
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Yoga, & Principle
File Size7 MB
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