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समत्वयोग की वैयक्तिक एवं सामाजिक साधना
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का शरीर के साथ भी सम्बन्ध नहीं है; तो उसका पुत्र, पत्नी और मित्र के साथ सम्बन्ध कैसे हो सकता है? क्योंकि शरीर से चमड़ी दूर करने पर रोमछिद्र कैसे रह सकते हैं?२८
इसी सन्दर्भ में आचार्य पूज्यपाद ने कहा है कि शरीर से अन्यत्व का चिन्तन करना अन्यत्वानुप्रेक्षा है। शरीर ऐन्द्रिय है, पर आत्मा अतीन्द्रिय है। शरीर अज्ञ है पर आत्मा ज्ञाता है। शरीर अनित्य है पर आत्मा नित्य है। शरीर आदि अन्तवाला है पर आत्मा अनादि-अनन्त है। संसार में परिभ्रमण करते हुए इस आत्मा के लाखों शरीर अतीत हो गये - आत्मा उससे भिन्न है। हे अज्ञानी मूढ़! इन बाह्य पदार्थों से भिन्नता तो स्वाभाविक है। इसमें क्या आश्चर्य?१३०
शान्त सुधारस में विनयविजयजी लिखते हैं कि आध्यात्मिक विमूढ़ता के कारण तू जिस शरीर के साथ 'यह मैं हँ', इस अभिन्नता का अनुभव कर रहा है, वही शरीर निश्चित ही तुझे छोड़ देता है। भले फिर तू कितना भी अधीर बन और कितनी ही दीनता को प्रदर्शित कर। __ पण्डित प्रवर दौलतरामजी आत्मा और शरीरादि संयोगों में परस्पर भिन्नता और अभिन्नता का चित्रण करते हुए लिखते हैं कि यद्यपि आत्मा और शरीर पानी और दूध की भाँति मिले हुए हैं, फिर भी अभिन्न नहीं हैं। पूर्णतः भिन्न ही हैं। जब शरीर भिन्न है, तो घर, मकान, पुत्र-पत्नी आदि कैसे जीव के अपने हो सकते हैं?१३२ ___ इसी प्रकार पद्मनन्दिकृत पंचविंशति में इसी भाव का उल्लेख इस प्रकार किया गया है है कि जब देह और आत्मा की स्थिति दूध और पानी के समान एकक्षेत्रावगाही होकर भी भिन्न-भिन्न है,
१२६ 'यस्यास्ति नैक्यं वपुषापि सार्द्ध, तस्यास्ति किं पुत्रकलत्रमित्रैः ? पृथक्कृते चर्मणि रोमकूपाः, कुतो हि तिष्ठन्ति शरीरमध्ये ।।'
__ -आचार्य अमितगति सामायिक पाठ २७ । सर्वार्थसिद्धि अध्याय ६ सूत्र ७ की टीका। 'येन सहाश्रयसेऽतिविमोहादिदमहमित्यविभेदम् ।
तदपि शरीरं नियतमधीरं, त्यजति भवन्तं धृतखेदम् ।।२।।' __-शान्तसुधारस पृ. ५। १३२ जल-पय ज्यों जिय तन भेला, पै भिन्न-भिन्न नहिं भेला।।
तो प्रगट जुदे धन धामा, क्यों हवै इक मिलि सुत रामा ।। ७ ।।' -छहढाला पंचमढाल ।
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