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समत्वयोग की वैयक्तिक एवं सामाजिक साधना
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के भय से अभिभूत एवं रोग व वेदना से आक्रान्त लोक में तीर्थंकर के वचन के अलावा और कोई शरण नहीं है।६२ ___ इसकी साधना से चित्त में उठने वाली राग-द्वेष की तरंगों से व्यक्ति ऊपर उठ सकता है। ऐसी निरर्थक विकल्प तरंगों के शमन के लिये अशरण भावना का चिन्तन आवश्यक है।
कार्तिकेयानुप्रेक्षा में बताया गया है कि शरण उसको कहते हैं, जहाँ अपनी रक्षा हो। संसार में जिनका शरण विचारा जाता है, वे ही काल पाकर नष्ट हो जाते हैं। वहाँ कैसा शरण?२ अशरण भावना का तात्पर्य यही है कि विकराल मृत्यु के पाश से कोई भी बचाने में समर्थ नहीं होता।
उत्तराध्ययनसूत्र में कहा है कि जिस प्रकार मृग को सिंह पकड़कर ले जाता है, उसी प्रकार अन्त समय में मृत्यु भी मनुष्य को ले जाती है। उस समय माता, पिता, भाई, बहन, पुत्र-पुत्री, पत्नी आदि सब एक ओर खड़े देखते रहते हैं - विवश हो रोते बिलखते हैं। लेकिन उसे मृत्यु से बचाने में कोई समर्थ नहीं होते, न ही कोई शरण देते हैं।
ज्ञानार्णव में शुभचन्द्र आचार्य ने बताया है कि हे मूढ़! दुर्बुद्धि प्राणी! तू किसकी शरण चाहता है? ऐसा इस त्रिभुवन में कोई भी जीव नहीं है कि जिसके गले मे काल की फांसी नहीं पड़ती हो। समस्त प्राणी काल के वश हैं।
संयोगी पदार्थों में शरीर एक ऐसा संयोगी पदार्थ है, जिसकी सुरक्षा के लिये चित्त उद्वेलित होता रहता है। इस नश्वर देह की सुरक्षा के लिये प्राणी क्या-क्या नहीं करता है। अनेक प्रकार की औषधियों का सेवन करता है, कुदेवों की आराधना करता है, मन्त्रों
(क) प्रशमरतिसूत्र श्लोक १५२ । (ख) 'जन्मजरामरण भयैरभिद्रुते व्याधिवेदनाग्रस्ते ।। जिनवर वचनादन्यत्र नास्ति शरणं क्वचित्लोके ।।'
-शान्तसुधारस पृ. ६ । 'तत्थभवे कि सरणं, जत्थ सुरिंदाण दीसदे विलओ। हरिहरबंभादीया, कालसण य कवलिया जत्थ ।। २३ ।।' -कार्तिकेयानुप्रेक्षा श्लोक २३ । उत्तराध्ययनसूत्र १३/२२ । 'न स कोऽप्यस्ति दुर्बुद्धे शरीरी भुवनत्रये । यस्य कण्ठे कृतान्तस्य न पाशः प्रसरिष्यति ।। १ ।।'
-ज्ञानार्णव सर्ग २ ।
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