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________________ २६८ जैनदर्शन में समत्वयोग की साधना सफेद हो रहे हैं। श्रोत्रेन्द्रिय का बल क्षीण हो रहा है। अतः क्षण मात्र भी प्रमाद मत कर।"८६ __सिन्दुरप्रकरण में धन की अनित्यता का वर्णन किया गया है। शान्तसुधारस में आगे बताया गया है कि “हे आत्मन्! तू वैषयिक सुखों की क्षणभंगुर सहचरता को देख, जो देखते ही हास्य के साथ नष्ट होने वाली है। विषय सुख का यह साहचर्य संसार के उस स्वरूप का अनुगमन करता है, जो तीव्रता से चमकने वाली विद्युत-प्रकाश के विलास जैसा है। "हे आत्मन्! इस अनित्य भावना का चिन्तन करके शाश्वत अखण्ड तथा चिदानन्दमय स्वस्वरूप का साक्षात्कार करके सुख का अनुभव कर। इस प्रकार अनित्य भावना का चिन्तन कर।" इससे पर पदार्थों और आत्मा की पर्यार्यों के प्रति आसक्ति टूटती है। अनुकूलताओं में अहंकार और प्रतिकूलताओं में उद्वेग नहीं होता है। आत्मा को समत्व की प्राप्ति होती है। २. अशरण भावना पूर्व में हमने अनित्य भावना की चर्चा की। अब उसके पश्चात् अशरण भावना का क्रम आता है। सभी प्रकार के संयोग और पर्यायें अध्रुव हैं, अनित्य हैं और क्षणभंगुर हैं तथा द्रव्य स्वभाव ध्रुव है, नित्य है और चिरस्थाई है। यही समत्वयोग की साधना का सम्बल है। ___ व्यक्ति स्वयं की सुरक्षा के लिये किसी न किसी प्रकार की शरण प्राप्त करना चाहता है। पर इस संसार में कोई किसी का शरणभूत नहीं हो सकता; इसका बोध अशरण भावना से होता है। प्रशमरतिसूत्र में उमास्वाति ने बताया है कि जन्म जरा और मृत्यु उत्तराध्ययनसूत्र १०/२१ । 'पश्य भगुरमिदं विषय सुख सौहृदं । पश्यतामेव नाश्यति सहासम् ।। एतदऽनुहरति संसाररूपं रया । ज्ज्वलज्जलबालिकारूचि विलासम् ।। ७४ ।।' ६१ शान्तसुधारस पृ. ६ । -सिन्दुरप्रकरण । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001732
Book TitleJain Darshan me Samatvayog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyvandanashreeji
PublisherPrem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
Publication Year2007
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Yoga, & Principle
File Size7 MB
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