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जैनदर्शन में समत्वयोग की साधना
तक अनुकूल के प्रति राग और प्रतिकूल के प्रति द्वेष है, तब तक समत्व की साधना सम्भव नहीं है। अतः हम कह सकते हैं कि समत्व की साधना ही वीतरागता की साधना है। क्योंकि जीवन में समत्व के आये बिना वीतरागता प्रकट नहीं हो सकती। आचार्य शुभचन्द्र ज्ञानार्णव में लिखते हैं कि “हे आत्मन्, तू अपने समभाव रूपी स्वभाव द्वारा राग-द्वेष से ऊपर उठ; क्योंकि समभाव रूपी अग्नि से ही रागादि रूप भयानक अटवी को दग्ध किया जाता है।" समभाव में स्थित होने के लिये राग-द्वेष से ऊपर उठना आवश्यक माना गया है। राग-द्वेष की उपस्थिति में समभाव की साधना सम्भव नहीं होती है।६२ इसे स्पष्ट करते हुए शुभचन्द्र कहते हैं कि समभाव रूपी सूर्य की किरणों से रागादि रूप अन्धकार नष्ट हो जाता है और अपनी आत्मा के शुद्ध स्वरूप का अवलोकन होता है।६३ इसका अर्थ हुआ कि जब तक जीवन में समत्व का प्रकटन नहीं होता; तब तक रागादि भाव समाप्त नहीं होते। जब तक रागादि भाव समाप्त नहीं होते, तब तक परमात्मस्वरूप उपलब्धि नहीं होती।
जैनदर्शन के अन्दर परमात्मा को वीतराग कहा गया है। आत्मा जब राग-द्वेष से ऊपर उठकर वीतराग अवस्था को प्राप्त करती है; तब वह परमात्मा कही जाती है। अतः वीतराग परमात्मस्वरूप का पर्यायवाची ही है। यह वीतराग दशा समत्व की साधना के बिना प्रकट नहीं होती। समत्व की साधना के लिये वीतरागता और वीतरागता की साधना के लिए समत्व आवश्यक है। समत्वयोग का साधक वीतरागता का उपासक और वीतरागता का ही साधक होता है। __ जैनदर्शन में आत्मा का शुद्ध स्वरूप समत्व कहा गया है और इस शुद्ध स्वरूप की प्राप्ति के लिये जीवन में वीतरागता का आना आवश्यक है। जैन धर्म में साधना के जो विविध रूप हैं उन सबका लक्ष्य कषायों को उपशान्त करना या क्षीण करना है। कषाएँ राग-द्वेष जन्य हैं। आचार्य कुन्दकुन्द ने बताया है कि राग से
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-वही सर्ग २४ ।
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'रागादिविपिनं भीमं मोहशार्दूलपालितम् । दग्धं मुनिमहावीरैः साम्यधूमध्वजार्चिषा ।। ६ ।।' 'साम्यसूर्यांशुभिर्भिन्ने रागादितिमिरोत्करे । प्रपश्यति यमी स्वस्मिन्स्वरूपं परमात्मनः ।। ५ ।।'
-वही ।
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