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________________ जैनदर्शन में समत्वयोग की साधना समाज के भय से अतृप्त छोड़ देता है । एक ओर सामाजिक आदर्श होते हैं और दूसरी ओर व्यक्ति की अतृप्त आकांक्षाएँ और इच्छाएँ होती हैं । इनके कारण ही व्यक्ति का चैतसिक समत्व भंग हो जाता है । इस प्रकार ऐसे अनेक कारण रहे हुए हैं, जो व्यक्ति में मानसिक विषमताओं और तनावों को जन्म देते हैं। एक ओर वासनाएँ अपनी पूर्ति चाहती हैं और दूसरी ओर सामाजिक और धार्मिक जीवन मूल्य उन्हें अनैतिक या अनुचित कहकर नकारते हैं । इस प्रकार मनुष्य के अन्दर ही वासना और विवेक बल में एक संघर्ष उत्पन्न हो जाता है, जो मानसिक विषमताओं का कारण बनता है। इस प्रकार मानसिक विषमताओं के अनेक कारण रहे हुए हैं । जब तक इन कारणों का निराकरण नहीं किया जाता; तब तक चैतसिक समत्व सम्भव नहीं होता है । समत्वयोग की साधना का मुख्य लक्ष्य यही है कि इस मानसिक विषमता को समाप्त कर एक समतापूर्ण जीवनशैली का विकास किया जाय । २५६ जैनदर्शन का कहना है कि व्यक्तियों की जैविक आवश्यकताओं को लेकर कोई महत्त्वपूर्ण अन्तर नहीं है । अन्तर है तो उनकी इच्छाओं और आकांक्षाओं को लेकर है । जब तक व्यक्ति की इच्छा और आकाँक्षा पर अंकुश नहीं लगता है; तब तक न तो राष्ट्रीय स्तर पर, न अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर शान्ति सम्भव होगी । जैन धर्म में श्रावक के जिन व्रतों की विधान है उनमें निम्न तीन बातें महत्त्वपूर्ण हैं : १. व्यक्ति अपनी इच्छाओं का परिसीमन करे। उनकी मर्यादा निश्चित करे; क्योंकि अनन्त इच्छाओं की पूर्ति कभी सम्भव नहीं है। यदि इच्छाएँ परिमित होंगी, तो हम उनकी पूर्ति कर पायेंगे और उससे एक सन्तोष और सुख की अनभूति होगी । इसके विपरीत हमारी इच्छाएँ असीम बनी रहीं तो उसके परिणामस्वरूप हमारा चित्त अशान्त रहेगा और उनकी पूर्ति के उपायों के माध्यम से संघर्ष होगा। अतः इच्छाओं के परिसीमन को समत्वयोग की साधना का मुख्य आधार माना गया है । २. दूसरे व्यक्ति को अपने उपयोग- परिभोग के साधनों को भी सीमित करना होगा । यदि हम उपभोग - परिभोग के साधनों की परिसीमा निर्धारित नहीं करेंगे, तो संग्रह की वृत्ति समाप्त नहीं होगी और संग्रह की वृत्ति के परिणामस्वरूप सामाजिक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001732
Book TitleJain Darshan me Samatvayog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyvandanashreeji
PublisherPrem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
Publication Year2007
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Yoga, & Principle
File Size7 MB
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