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________________ समत्वयोग की वैयक्तिक एवं सामाजिक साधना २४३ धर्मवाद है। माध्यस्थ या समभाव दृष्टि में ही समस्त शास्त्रों का ज्ञान समाहित हो जाता हैं। श्रीमद्राजचन्द्रजी ने भी कहा है : 'भिन्न-भिन्न मत देखीए, भेद दृष्टिनो एह। एक तत्त्वना मूलमां व्याप्या मानो तेह ।। ३८ ।।२५ अनेकान्तवादी का चिन्तन व्यापक होता है। वह उसे सर्वांगीण दृष्टि प्रदान करता है। श्रीमद्राजचन्द्रजी का कहना यह है कि एकान्त और अनेकान्त में मौलिक भेद यही है कि एकान्त कथन में 'ही' का आग्रह रहता है और अनेकान्त दृष्टि में 'भी' के सदाग्रह की प्रधानता रहती है। जैनदर्शन में एकान्त को मिथ्यात्व स्वीकार किया गया है।३६ सन्त आनन्दघनजी ने भी एकान्त या निरपेक्ष वचन को मिथ्या बताकर सापेक्ष (अनेकान्त) वचन की यथार्थता पर बल दिया है। वे कहते हैं : _ 'वचन निरपेख व्यवहार झुठो कह्यो, वचन सापेक्ष व्यवहार सांचो। वचन निरपेक्ष व्यवहार संसार फल, सांभली आदरी कांइ राचो ।।३७ _निरपेक्ष वचन - अपेक्षा रहित या एकान्त वचन मिथ्या है और सापेक्षवचन या अनेकान्त वचन सत्य है। समत्वयोग की साधना का मुख्य लक्ष्य वैयक्तिक जीवन के साथ-साथ पारिवारिक एवं सामाजिक जीवन में सामंजस्य और समता की स्थापना है। क्योंकि जब तक समाज और परिवार में सौहार्द नहीं होगा, वैयक्तिक जीवन में भी शान्ति का लाभ एवं समत्व की अनुभूति सम्भव नहीं होगी। अतः समत्वयोग का मुख्य प्रतिपाद्य न केवल वैयक्तिक जीवन में समत्व की साधना है, अपितु ३५ श्रीमद्राजचन्द्र (हिन्दी अनुवाद) प्रथम खण्ड पृ. २२५ । ___-(उद्धृत आनन्दघन का रहस्यवाद प्र. १२६) । ३६ ‘एगंत होई मिच्छतं ।' ___-श्रीमद्राजचन्द्र (हिन्दी अनुवाद) प्रथम खण्ड पृ. २२५ (उद्धृत आनन्दघन का रहस्यवाद पृ. १२६) । ३७ 'अनन्त जिन स्तवन' - आनन्दघन ग्रन्थावली । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001732
Book TitleJain Darshan me Samatvayog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyvandanashreeji
PublisherPrem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
Publication Year2007
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Yoga, & Principle
File Size7 MB
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