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जैनदर्शन में समत्वयोग की साधना
पारिवारिक और सामाजिक जीवन में भी समत्व की साधना है। उसके माध्यम से परिवार और समाज के मध्य भी शान्तिपूर्ण वातावरण का निर्माण किया जा सकता है। सामाजिक और पारिवारिक जीवन में समत्व तथा शान्ति की स्थापना के लिये जैनदर्शन में मुख्यतः अहिंसा, अपरिग्रह और अनेकान्त की अवधारणाएँ प्रस्तुत की गईं। वस्तुतः ये तीनों सिद्धान्त बाह्य जीवन में समत्व की संस्थापना में सहायक होते हैं।
पारिवारिक जीवन में विवाद क्यों उत्पन्न होते हैं? उनके मुख्यतः तीन कारण हैं :
१. परिवार के सदस्यों में पारस्परिक असहिष्णुता; २. परिवार के सदस्यों में वैचारिक मतभेद या जीवन मूल्यों के
सन्दर्भ में मतभेद; और ३. परिवार के सदस्यों में स्वार्थबुद्धि या अपने हितों को
प्रमुखता देना। इन तीनों कारणों का निराकरण क्रमशः अहिंसक वृत्ति, अनेकान्तिक चिन्तन और त्याग की भावना से ही सम्भव होता है। परिवार में सहिष्णुता और सौहार्द का जन्म तभी सम्भव है, जब परिवार के सभी सदस्य दूसरों की भावनाओं और विचारों का आदर करना सीखें। जब तक व्यक्ति दूसरे की भावना और विचारों का आदर नहीं करता है, तब तक पारस्परिक असहिष्णुता बनी रहती है। अतः वैचारिक उदारता और समन्वयशीलता आवश्यक होती है। परिवार के इन मतभेदों को अनेकान्त की दृष्टि से सुलझाया जा सकता है। डॉ. सागरमल जैन 'जैन, बौद्ध और गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन' भाग २ पृ. २४८ पर लिखते हैं कि “पारिवारिक जीवन में संघर्ष के दो केन्द्र होते हैं - पिता-पुत्र तथा सास-बहू। इन दोनों के मूल में दोनों का दृष्टिभेद है। पिता जिस परिवेश में बड़ा हुआ है, उन्हीं संस्कारों के आधार पर पुत्र का जीवन ढालना चाहता है। जिन मान्यताओं को स्वयं मानकर बैठा है, उन्हीं मान्यताओं को दूसरे से मनवाना चाहता है। पिता की दृष्टि अनुभव प्रधान होती है। जबकि पुत्र की दृष्टि तर्क प्रधान होती है। एक प्राचीन संस्कारों से ग्रसित है, तो दूसरा उन्हें समाप्त कर देना चाहता है। यही स्थिति सास-बहू में होती है।
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