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________________ २४२ जैनदर्शन में समत्वयोग की साधना 'यस्य सर्वत्र समता नयेषु तनयेष्विव । तस्यऽनेकान्तवादस्य न्यूनाधिकशेमुषी तेन स्याद्वादमालम्ब्य सर्वदर्शन तुल्यताम् मोक्षोद्देशण विशेषण यः पश्यति स शास्त्रवित् स एवं धर्मवादः स्यादन्यद् बालिशवल्गनम् ।। माध्यस्थसहितं ह्येकपदज्ञानमपि प्रमा शास्त्र कोटि वृथैश्चैव तथा चोक्तं महात्मना ।।३२ अनेकान्तवादी का दृष्टिकोण सभी दर्शनों के प्रति समभावपूर्ण होता है। वह किसी भी दर्शन से राग या द्वेष नहीं करता। आचार्य हरिभद्र कहते हैं : 'पक्षपातो न में वीरे, न द्वेषः कपिलादिषु । युक्तिमत वचनं यस्यतस्य कार्य परिग्रह ।।२२ अर्थात् मुझे न तो महावीर के प्रति राग है और न कपिल आदि अन्य दार्शनिकों के प्रति द्वेष है। जिसके वचन युक्ति संगत हों, उन्हें स्वीकार करना चाहिये। इसी तरह 'उपदेश तरंगिनी' में भी उन्होंने कहा है कि मुक्ति न तो दिगम्बरत्व में है, न श्वेताम्बरत्व में, न तर्कवाद में, न तत्त्ववाद में और न ही किसी पक्ष का समर्थन करने में है। वस्तुतः कषायों से मुक्त होना ही मुक्ति है।३४ अनेकान्तवादी सभी दर्शनों को वात्सल्य दृष्टि से देखता है। उसकी दृष्टि उदार, विशाल और समन्वयात्मक होती है। समत्वयोग की साधना ही उसके जीवन का अंग बन जाती है। समत्वयोग की साधना से उसका जीवन ओत-प्रोत होता है। यही कारण है कि अनेकान्तवादी सच्चा शास्त्रज्ञ कहलाने का अधिकारी भी है, क्योंकि वह स्याद्वाद का आलम्बन लेकर सम्पूर्ण दर्शनों के प्रति समान भाव रखता है। माध्यस्थ भाव ही शास्त्रों का गूढ़ रहस्य है। यही ३२ 'अनेकान्त व्यवस्था' भाग १ । -उपाध्याय यशोविजयजी । ३३ 'लोकतत्त्व निर्णय -हरिभद्रसूरि । 'नाशाम्बरत्वे न सिताम्बरत्वे न तर्क वादे न च तत्त्ववादे । न पक्ष सेवाऽऽश्रयणेन मुक्तिः कषाय मुक्तिः किल मुक्तिरेव ।। ८ ।।' -उपदेशतरंगिनी प्रथम तरंग (तप उपदेश)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001732
Book TitleJain Darshan me Samatvayog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyvandanashreeji
PublisherPrem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
Publication Year2007
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Yoga, & Principle
File Size7 MB
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