SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 292
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ समत्वयोग की वैयक्तिक एवं सामाजिक साधना किन्तु उसका पुष्पित एवं पल्लवित रूप पश्चात्वर्ती जैनाचार्यों के साहित्य में देखने को मिलता है। वस्तुतः अनेकान्त दृष्टि को दार्शनिक धरातल पर स्थापित करने का श्रेय आचार्य सिद्धसेन तथा मल्लवादी को है, जिन्होंने सन्मतितर्कप्रकरण, नयचक्र आदि ग्रन्थों में इस पर विशद् विचारणा की है। इसके अतिरिक्त समन्तभद्र, अकलंक, आचार्य हरिभद्र, विद्यानन्द आदि जैन दार्शनिकों ने भी इसका विकास किया है। सन्त आनन्दघनजी समत्वयोगी थे । उनकी विवेचनाओं का आधार भी अनेकान्त दृष्टि रही है। उनका ' अवधूनटनागर की बाजी' नामक पद अनेकान्त दृष्टि का सुन्दर उदाहरण है । उनकी अनेकान्त दृष्टि का प्रमाण निम्न पद भी है : 'षड्दरसण जिन अंग भणीजे, न्याय षडंग जो साधे रे । नमि जिनवरना चरण उपासक, षड्दर्शन आराधे रे।।३० इस पद में उन्होंने अनेकान्तवाद के आधार पर षड्दर्शनों का समन्वय किया है और षड्दर्शनों को जिन के विभिन्न अंगों के रूप में प्रतिपादित किया है । वास्तव में अनेकान्तदृष्टि एक ऐसी व्यापक पद्धति है, जिसमें समस्त दर्शन समाहित हो जाते हैं । जैसे हाथी के पैर में अन्य सभी प्राणियों के पैर और सागर में सभी सरिताएँ समा जाती हैं, वैसे ही अनेकान्त दृष्टि में सभी दर्शन समा जाते हैं । इस सम्बन्ध में आनन्दघनजी का सुप्रसिद्ध पद है : ३१ २४१ 'जिनवर मा सघला दरसण छे, दरसण जिनवर भजना रे । सागरमां सघली तटनी सही, तटनी सागर भजना रे ।। ३१ उपाध्याय यशोविजयजी लिखते हैं : २६ आनन्दघन ग्रन्थावली - 'नमिजिनस्तवन' । ३० 'आनन्दघन का रहस्यवाद' पृ. १२८ से उद्धृत । - डॉ. सुदर्शनाश्री । (ख) 'सप्तभिः प्रकारैर्वचनविन्यासः सप्तभंगीतिगीयते ।' स्याद्वादमंजरी कारिका २३ की टीका । (ग) प्रश्नवशादेकस्मिन् ः वस्तुनि अविरेधेन विधिप्रतिवेधविकल्पना सप्तभंगी । ' - राजवार्तिक १/६/५/ (घ) पंचास्तिकाय संग्रह १४ । आनन्दघन ग्रन्थावली - 'नमिजिनस्तवन' । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001732
Book TitleJain Darshan me Samatvayog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyvandanashreeji
PublisherPrem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
Publication Year2007
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Yoga, & Principle
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy