________________
जैनदर्शन में समत्वयोग की साधना
२७
I
भी सूक्ष्मदृष्टि से देखने पर दोनों में प्रतिपाद्य - प्रतिपादक सम्बन्ध दृष्टिगोचर होता है। आचार्य अकलंक के अनुसार अनेकान्तात्मक वस्तु को भाषा के माध्यम से प्रतिपादित करने वाली पद्धति ही स्याद्वाद है । वस्तुतत्त्व न केवल अनेक धर्मों से युक्त है, अपितु उसमें अनेक विरोधी धर्म रहे हुए हैं । जहाँ वस्तु का तत् रूप है, वहीं अतत् रूप भी है; जो एक है, वही अनेक भी है; जो सत् है वही असत् भी है; और जो नित्य है, वही अनित्य भी है। इस प्रकार वस्तु में रहे हुए परस्पर विरोधी धर्मयुगलों का प्रकाशन ही अनेकान्त है। इस प्रकार वस्तु में नित्य - अनित्य, सत्-असत् आदि परस्पर विरोधी गुण धर्मों को स्वीकार कर सर्वथा एकान्त का निराकरण करना ही अनेकान्त है । अनेकान्त की यह विशेषता है कि वह वस्तु में परस्पर विरोधी गुणधर्मों की सत्ता को युगपद् रूप से स्वीकार करता है ।
२४०
अनन्तधर्मात्मक वस्तु तत्त्व में रहे हुए विरोधी धर्म युगलों को सापेक्षिक रूप से अभिव्यक्त करने वाले सात विकल्प हो सकते हैं 1 इसे सप्तभंगी भी कह सकते हैं ।
२७
१. स्यात् अस्ति;
२. स्यात् नास्ति;
अनेकान्तवाद के माध्यम से व्यक्ति में समन्वयवादी दृष्टिकोण का आविर्भाव होता है ।
२८
३. स्यात् अवक्तव्य;
४. स्यात् अस्ति च नास्ति च;
५. स्यात् अस्ति च अवक्तव्य च;
जैनदर्शन के ग्रन्थों में अनेकान्तवाद, स्याद्वाद, सप्तभंगी और नयवाद की विस्तृत विवेचना उपलब्ध होती है । उनमें अनेकान्तवाद और नयवाद के माध्यम से ही तत्त्वज्ञान के रहस्यों को उद्घाटित किया गया है ।
यद्यपि जैनागमों में अनेकान्त दृष्टि बीज रूप में निहित है,
६. स्यात् नास्ति च अवक्तव्य च; और
२८
७ स्यात् अस्ति च नास्ति च अवक्तव्य च ।
Jain Education International
'अनेकान्तात्मकार्थ कथनं स्यादवादः' लघीयस्त्रय टीका ६२ । 'जैन विद्या के विविध आयाम' पृ. १५८-५६ ।
For Private & Personal Use Only
- अकलंक ।
- डॉ. सागरमल जैन ।
www.jainelibrary.org