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समत्वयोग की वैयक्तिक एवं सामाजिक साधना
क्षेत्र में संघर्ष का आधार जीवन मूल्य या जीवन दृष्टियाँ होती हैं । धार्मिक क्षेत्र में संघर्ष का कारण मुख्यतः धार्मिक आचार और विचार का दुराग्रह होता है तथा राजनैतिक क्षेत्र में संघर्ष का कारण विभिन्न विचारधाराएँ बनती हैं । यहाँ हम यह देखने का प्रयत्न करेंगे कि समत्वयोग की साधना अनेकान्त के माध्यम से किस प्रकार इन वैचारिक मतभेदों का निराकरण करती है ।
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अनेकान्त भारतीय दर्शनों के मध्य एक योजक कड़ी है और जैनदर्शन का हृदयस्थल है। इस अनेकान्तवाद का दूसरा नाम स्याद्वाद भी है । नित्य, अनित्य आदि परस्पर विरोधी एवं अनेक धर्मों से युक्त वस्तु के अभ्युपगम को स्याद्वाद कहते हैं । सामान्यतः स्याद्वाद और अनेकान्तवाद दोनों पर्यायवाची माने जाते हैं। अनेकान्त शब्द का अर्थ इस प्रकार है अनेक+अन्त अनेकान्त अर्थात् जिसके अनेक निष्कर्ष हों, वह अनेकान्त है । अनेकान्त शब्द की व्युत्पत्ति 'रत्नाकरवतारिका' में इस प्रकार की गई है :
'नरकः इति अनेकः अनेके अन्तः (वादः ) अनेकान्तः अनेकान्तश्च मसौः वादश्च इति अनेकान्तवादृ । अभ्यते गम्यते - निश्चियते इति अन्तः धर्मः । न एकः अनेकः अनेकश्चासौ अन्तश्च
२३ स्याद्वाद मंजरी पृ. २३६ । रत्नाकरवतारिका पृ. ८६ ।
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अर्थात् वस्तु में अनेक धर्मों के समूह को मानना अनेकान्त है । अनेकान्त को स्याद्वाद भी कहा जाता है । स्यात् अनेकान्तवाद का द्योतक अव्यय है ।
(क) अष्टसहस्त्री पृ. २८६ । (ख) आत्ममीमांसा श्लोक १०३;
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आचार्य हेमचन्द्र ने भी 'स्यात्' शब्द को अनेकान्त का द्योतक माना है । २६ यद्यपि सामान्यतः दोनों में विशेष अन्तर नहीं है, फिर
(ग) पंचास्तिकाय गाथा १५; (घ) अमृतचंद्रसूरि की टीका पृ. ३०; और
(च) स्यादवादमंजरी ५ ।
अन्ययोगव्यच्छेदिका कारिका २८ ।
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इति । । "
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