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________________ २३८ जैनदर्शन में समत्वयोग की साधना संघर्ष आग्रह, पक्ष या दृष्टि के कारण है। भोगासक्ति स्वार्थों की संकीर्णता को जन्म देती है और आग्रहवृत्ति वैचारिक संकीर्णता को जन्म देती है। संकीर्णता चाहे वह हितों की हो या विचारों की, संघर्ष को जन्म देती है। जब आसक्ति, लोभ या राग के रूप में पक्ष उपस्थित होता है, तो द्वेष या घृणा के रूप में प्रतिपक्ष भी उपस्थित हो जाता है। पक्ष और प्रतिपक्ष की यह उपस्थिति आन्तरिक संघर्ष का कारण होती है। समत्वयोग राग-द्वेष के द्वन्द्व से ऊपर उठाकर वीतरागता की ओर ले जाता है। वह आन्तरिक सन्तुलन है। समत्वयोग का मूल केन्द्र आन्तरिक सन्तुलन या समत्व है। समत्वयोग की साधना का मुख्य लक्ष्य न केवल मानसिक समता की स्थापना है, अपितु वैचारिक दृष्टि से पारस्परिक सहिष्णुता और समता की स्थापना भी है। , समाज में और व्यक्तियों में पारस्परिक सहिष्णुता और वैचारिक उदारता का विकास हो, इसके लिये जैनदर्शन अनेकान्तवाद को प्रस्तुत करता है। अनेकान्तवाद के माध्यम से धार्मिक सम्प्रदायों और राजनैतिक विचारधाराओं के मध्य एक सुसामंजस्य की स्थापना की जा सकती है। जैनदर्शन का अनेकान्तवाद का सिद्धान्त वैचारिक मतभेदों और साम्प्रदायिक दुराग्रहों के मध्य समन्वय का मार्ग प्रस्तुत करता है। विचार के स्तर समत्वयोग की साधना अथवा सामाजिक जीवन में वैचारिक सहिष्णुता की स्थापना के लिये अनाग्रह या अनेकान्त की अवधारणा का विकास आवश्यक माना गया है। वस्तुतः जैनदर्शन का अनेकान्तवाद का सिद्धान्त वैचारिक विषमता और वैचारिक संघर्षों को समाप्त करने का एक सुन्दर उपाय है। विचार के क्षेत्र में समत्व की स्थापना या वैचारिक संघर्षों का निराकरण उसी के माध्यम से सम्भव है। अगले पृष्ठों में हम यह देखने का प्रयत्न करेंगे कि अनेकान्तवाद की अवधारणा किस प्रकार सामाजिक जीवन में उत्पन्न वैचारिक संघर्षों को समाप्त कर सकती है। सामाजिक जीवन में वैचारिक मतभेद तीन रूपों में पाये जाते हैं। परिवार की एक पीढ़ी का दूसरी पीढ़ी के साथ जीवन मूल्यों को लेकर मतभेद होता है। परिवार और समाज दोनों में ही जीवन के दृष्टिकोण को लेकर संघर्ष होता है। इसी प्रकार राजनैतिक क्षेत्र में विभिन्न विचारधाराओं के मध्य मतभेद होता है। इस प्रकार वैचारिक मतभेद के तीन क्षेत्र होते हैं। सामाजिक एवं पारिवारिक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001732
Book TitleJain Darshan me Samatvayog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyvandanashreeji
PublisherPrem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
Publication Year2007
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Yoga, & Principle
File Size7 MB
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