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________________ २३० जैनदर्शन में समत्वयोग की साधना जब तक व्यक्ति अपने क्षुद्र स्वार्थों से ऊपर नहीं उठता, तब तक व्यक्ति और समाज के मध्य सुमधुर सम्बन्ध स्थापित नहीं हो पाते हैं। व्यक्ति और समाज के मध्य जो भी संघर्ष उत्पन्न होते हैं, उनका मूल कारण व्यक्ति की स्वार्थ वृत्ति ही होती है। व्यक्ति का 'स्व' जितना संकुचित होता है, सामाजिक संघर्ष उतने ही अधिक होते हैं। व्यक्ति का 'स्व' - चाहे वह अपने वैयक्तिक जीवन तक, चाहे वह पारिवारिक जीवन तक अथवा अपने धर्म और सम्प्रदाय तक सीमित हो, वह उसे स्वार्थ भावना से ऊपर नहीं उठने देता है। उसकी स्वार्थ की यही वृत्ति व्यक्ति और परिवार के मध्य अथवा व्यक्ति और समाज के मध्य संघर्षों को जन्म देती है। आचार्य महाप्रज्ञ लिखते हैं कि “परिवार के प्रति ममत्व का सघन रूप जैसे जाति या राष्ट्र के प्रति बढ़ती जाने वाली अनैतिकता का नियामक नहीं होता, वैसे ही जाति या राष्ट्र के प्रति ममत्व राष्ट्रों के प्रति बढ़ती जाने वाली अनैतिकता का नियामक नहीं होता।" राग का तत्त्व द्वेष का सहगामी होता है। जहाँ राग होता है, वहाँ द्वेष भी होता है और जब तक जीवन में राग-द्वेष के तत्त्व कायम रहते हैं, तब तक सामाजिक जीवन में संघर्ष समाप्त नहीं होते हैं। संघर्ष चाहे व्यक्ति या परिवार के मध्य हो, व्यक्ति या समाज के मध्य हो या दो समाजों अथवा धर्म सम्पदायों के मध्य हो, क्षुद्र वृत्ति के समाप्त होने पर ही समाप्त होंगे। जैन धर्म वैयक्तिक और सामाजिक जीवन में निहित संघर्षों को समाप्त करने के लिये राग-द्वेष की वृत्तियों से ऊपर उठना आवश्यक समझता है। समत्वयोग की साधना इस बात पर सर्वाधिक बल देती है कि व्यक्ति रागभाव एवं स्वार्थपरक वृत्ति से ऊपर उठे। समत्वयोग की साधना वस्तुतः राग-द्वेष, मेरे-पराये आदि के भावों से ऊपर उठने की ही साधना है। यहाँ यह प्रश्न उपस्थित हो सकता है कि यदि जीवन में रागभाव या ममत्व की वृत्ति नहीं रहेगी; तो फिर परिवार, समाज, जाति, राष्ट्र आदि की अवधारणाएँ ही समाप्त हो जायेंगी। किन्तु यहाँ जैनदर्शन की मान्यता यह है कि परिवार, समाज या राष्ट्र आदि के मध्य सम्बन्ध राग-द्वेष के आधार पर नहीं, अपितु कर्तव्य बुद्धि के आधार पर खड़े होने चाहिये। यदि व्यक्ति और परिवार अथवा व्यक्ति और समाज के मध्य सम्बन्ध राग-द्वेष के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001732
Book TitleJain Darshan me Samatvayog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyvandanashreeji
PublisherPrem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
Publication Year2007
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Yoga, & Principle
File Size7 MB
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