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समत्वयोग की वैयक्तिक एवं सामाजिक साधना
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अनेक बार परिस्थितियाँ हमारी इच्छाओं और आकांक्षाओं के प्रतिकूल सिद्ध होती हैं। इन प्रतिकूल स्थितियों में व्यक्ति को अपने ही बाह्य परिवेश के साथ संघर्ष करना होता है। इस संघर्ष में भी एक ओर उसके वैयक्तिक जीवन की शान्ति भंग होती है, तो दूसरी ओर सामाजिक जीवन भी उससे प्रभावित होता है।
३. वैयक्तिक हित और सामाजिक हित (व्यक्ति और समाज __ के मत) संघर्ष
व्यक्ति समाज में ही जन्म लेता है और विकसित होता है। व्यक्ति और समाज परस्पर सापेक्ष हैं। व्यक्ति के बिना समाज और समाज के बिना व्यक्ति की कल्पना नहीं की जा सकती। क्योंकि एक सभ्य और सुसंस्कृत समाज में व्यक्ति के व्यक्तित्व के विकास के लिये समाज का सहयोग आवश्यक होता है। फिर भी, जब व्यक्ति में स्वार्थवादी प्रवृत्ति विकसित होती है, तो वह स्वहित या अपने स्वार्थों की पूर्ति तक ही केन्द्रित हो जाता है। फलतः व्यक्ति और समाज के मध्य संघर्ष प्रारम्भ हो जाता है। पारिवारिक और सामाजिक जीवन में व्यक्ति की भोगाकांक्षाओं का कहीं न कहीं नियन्त्रण आवश्यक होता है। व्यक्ति को परिवार और समाज के हित के लिये अपने वैयक्तिक हितों का त्याग करना पड़ता है। जब व्यक्ति अपने वैयक्तिक हितों या स्वार्थों की पूर्ति को ही महत्त्वपूर्ण मान लेता है, तब व्यक्ति और परिवार अथवा व्यक्ति और समाज के मध्य संघर्ष प्रारम्भ होता है। सामाजिक सम्बन्धों में विषमता के मूल में सामान्यतः स्वार्थ बुद्धि या राग-द्वेष की वृत्ति ही मुख्य होती है। जब सम्बन्ध राग भावना या स्वार्थों के आधार पर खड़े होते हैं, तो सम्बन्धों में कहीं न कहीं संघर्ष और टकराहट आरम्भ हो जाती है। राग भाव के कारण 'मैं' और 'मेरा' का घेरा बनता है। परिणामस्वरूपर मेरे परिवारजन, मेरी जाति, मेरा धर्म और मेरा राष्ट्र - ये विचार विकसित होते हैं, जो भाई भतीजावाद, जातिवाद, सम्प्रदायवाद और राष्ट्रवाद को जन्म देते हैं। चाहे ये अवधारणाएँ कितनी ही व्यापक क्यों न हों, इनके मूल में कहीं न कहीं स्वार्थबुद्धि कार्य तो करती है। फलतः इनके कारण वैयक्तिक जीवन में तनाव और सामाजिक जीवन में संघर्षों का जन्म होता है।
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