SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 279
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २२८ जैनदर्शन में समत्वयोग की साधना जाता है। उदाहरण के लिये व्यक्ति एक ओर अथाह सम्पत्ति का स्वामी होना चाहता है, तो दूसरी ओर इन्द्रियाँ विषय भोगों के माध्यम से अपनी सन्तुष्टि चाहती हैं। एक ओर सम्पत्ति के संचय की आकांक्षा होती है, तो दूसरी ओर उसके व्यय की इच्छा होती है। इन्हीं इच्छाओं के संघर्ष के कारण ही व्यक्ति का चित्त अशान्त रहता है और उसका चैतसिक समत्व भंग हो जाता है। समत्वयोग की साधना इच्छाओं और आकांक्षाओं के नियन्त्रण के माध्यम से मनोवृत्तियों के आन्तरिक संघर्ष को समाप्त करने का प्रयत्न करती है। समत्वयोग का जीवन दर्शन यह है कि जहाँ इच्छाएँ और आकांक्षाएँ होती हैं, वहाँ चैतसिक समत्व या आन्तरिक शान्ति का अभाव. होता है। चैतसिक समत्व या आन्तरिक शान्ति के लिये व्यक्ति को इच्छाओं और आकांक्षाओं से ऊपर उठना आवश्यक है। इच्छाओं और आकांक्षाओं से ऊपर उठने का यह प्रयत्न ही समत्वयोग की साधना है। २. व्यक्ति की आन्तरिक अभिरूचियों और बाह्य परिस्थितियों का संघर्ष भोगवादी जीवन दृष्टि के कारण व्यक्ति में अनेक इच्छाओं और आकांक्षाओं का जन्म होता है। किन्तु इन इच्छाओं एवं आकांक्षाओं की पूर्ति बाह्य जगत में ही सम्भव होती है। व्यक्ति की इच्छाएँ या आकांक्षाएँ अनन्त हैं और बाह्य जगत् में उनकी पूर्ति के साधन उनकी अपेक्षा सीमित ही होते हैं। अतः उनकी पूर्ति के प्रयत्नों में भी अन्तर में एक असन्तोष तो बना ही रहता है। यह असन्तोष हमारे चैतसिक समत्व को भंग कर देता है। दूसरी ओर व्यक्ति की इन इच्छाओं और आकांक्षाओं की पूर्ति के साधन उसके अधिकार में भी नहीं होते। वे उसे अन्य व्यक्तियों के अधिकार से प्राप्त करने होते हैं। परिणामस्वरूप व्यक्ति का समाज के दूसरे सदस्यों के साथ संघर्ष प्रारम्भ हो जाता है। पुनः व्यक्ति की इन इच्छाओं या आकांक्षाओं की पूर्ति बाह्य जगत् में ही सम्भव होती है और बाह्य परिस्थितियाँ सदैव ही उन इच्छाओं और आकांक्षाओं की पूर्ति के अनुकूल ही सिद्ध हों, यह सम्भव नहीं होता। व्यक्ति क्या चाहता है और परिस्थितियाँ किस ओर ले जाती हैं, यह सुनिश्चित नहीं है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001732
Book TitleJain Darshan me Samatvayog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyvandanashreeji
PublisherPrem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
Publication Year2007
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Yoga, & Principle
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy