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________________ समत्वयोग की वैयक्तिक एवं सामाजिक साधना २२७ संघर्ष को जन्म देती है। यह संघर्ष शान्ति को भंग करता है। इस प्रकार जहाँ स्वार्थ की वृत्ति जीवित रहेगी, वहाँ परमार्थ या लोकमंगल की भावना सम्भव नहीं होगी। स्वार्थ के कारण व्यक्ति अन्यायी, अत्याचारी एवं निर्दयी बन जाता है। वह केवल स्वयं के हित का ही चिन्तन करता है। उसकी इच्छा यही रहती है कि विश्व की समग्र सम्पदा मेरे अधीन हो, सर्वत्र मेरा यशोगान हो। परमार्थ या लोकमंगल की भावना तभी सम्भव हो सकती है, जब व्यक्ति का स्वार्थवृत्ति पर नियन्त्रण हो। समत्वयोग की साधना का लक्ष्य स्वार्थ पर नियन्त्रण करना ही है। _स्वार्थ एक बाँध की तरह होता है। वह सभी कुछ अपने में समेटना चाहता है। किन्तु बाँध के नियन्त्रण में यदि थोड़ी सी असावधानी होती है, तो वह मर्यादा को तोड़कर सर्वत्र हाहाकार मचा देता है। इस प्रकार स्वार्थ-वृत्ति के अनियन्त्रित होने से सामाजिक समता नष्ट होती है। व्यक्ति तथा समाज में संघर्षों का जन्म होता है। मानवीय जीवन में ये संघर्ष प्रायः चार रूपों में देखने को मिलते हैं : १. मनोवृत्तियों का आन्तरिक संघर्ष; २. व्यक्ति की आन्तरिक अभिरूचियों और बाह्य परिस्थितियों का संघर्ष; ३. वैयक्तिक हित और सामाजिक हित का संघर्ष; और ४. समाजों के पारस्परिक संघर्ष । आगे हम इनकी क्रमशः चर्चा करेंगे। १. मनोवृत्तियों का आन्तरिक संघर्ष स्वार्थी व्यक्ति अपनी इच्छाओं और आकांक्षाओं की पूर्ति करना चाहता है। किन्तु उसकी इच्छाएँ और आकांक्षाएँ अनेक होती हैं। सर्वप्रथम तो इन इच्छाओं और आकांक्षाओं की उपस्थिति के कारण उसका आन्तरिक समत्व भंग होता है। इच्छा की उपस्थिति ही तनाव की सूचक है। अतः उनके कारण व्यक्ति का आन्तरिक समत्व या मानसिक शान्ति भंग हो जाती है। मात्र एक इच्छा ही नहीं, अपितु उसके सामने अनेक इच्छाएँ अपनी सन्तुष्टि के लिये उपस्थित होती हैं। किन्तु उसे उन सभी इच्छाओं में से किसी एक को प्राथमिकता देना होता है। किस इच्छा को प्राथमिकता दी जाये - इसको लेकर इच्छाओं के मध्य एक आन्तरिक संघर्ष प्रारम्भ हो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001732
Book TitleJain Darshan me Samatvayog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyvandanashreeji
PublisherPrem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
Publication Year2007
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Yoga, & Principle
File Size7 MB
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