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समत्वयोग की वैयक्तिक एवं सामाजिक साधना
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अत्थाय हिताय देव मनुस्सानं' लोक मंगल के लिये ही है। सच्चा सन्यासी वह व्यक्ति है, जो समाज से अल्पतम लेकर उसे अधिकतम देता है। समत्वयोगी में अपने पराये की भेद रेखा नहीं होती। वह इनसे ऊपर उठ जाता है। वह तो अपनी कर्तव्यपूर्ण भूमिका या धर्म को निभाता है। जैसे कहा है :
___ 'सम दृष्टि जीवड़ा, करे कुटुम्ब प्रतिपाल।
अन्तर सूं न्यारा रहे, जूं धाय खिलावे बाल।। वस्तुतः निर्ममत्व एवं निःस्वार्थ भाव तथा वैयक्तिक स्वार्थ से रहित होकर लोकहित में अपने कर्तव्य का पालन ही समत्वयोगी की सच्ची भूमिका है। समत्वयोग का साधक वह व्यक्ति है, जो लोक कल्याण के लिये तन, मन या सम्पूर्ण जीवन को समर्पित कर दे। उसका त्याग समाज के लिये आदर्श रूप होता है। अतः सामाजिक जीवन में समत्वयोग की साधना के लिये भी राग-द्वेष एवं कषायों से ऊपर उठना आवश्यक है।
४.२ सामाजिक विषमता के कारण
सामाजिक सम्बन्धों में विषमता के उत्पन्न होने का मूल कारण ही राग-द्वेष है। यही राग-द्वेष के तत्त्व जब किसी व्यक्ति या वर्ग पर केन्द्रित होते हैं, तो अपने और पराये के भेद उत्पन्न करके सामाजिक सम्बन्धों को अशुद्ध बना देते हैं और वर्ग-संघर्ष को जन्म देते हैं। सामुदायिक जीवन के ये सम्बन्ध पांच प्रकार के है :
१. व्यक्ति और परिवार; २. व्यक्ति और जाति; ३. व्यक्ति और समाज; ४. व्यक्ति और राष्ट्र, और
५. व्यक्ति और विश्व । जब ये सम्बन्ध राग-द्वेष के आधार पर खड़े होते हैं, तब इन सम्बन्धों के मूल में विषमता स्वाभाविक रूप से उपस्थित रहती है। राग के कारण 'मेरा' या 'ममत्व' का भाव उत्पन्न होता है। मेरे
४ 'जैन, बौद्ध और गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन' भाग २, पृ. १५६-५७ ।
-डॉ. सागरमल जैन । ५ वही पृ. ४६८ ।
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