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________________ २२४ जैनदर्शन में समत्वयोग की साधना सम्बन्धी, मेरी जाति, मेरा धर्म और मेरा राष्ट्र - ये विचार गतिशील होते जाते हैं। किन्तु, जहाँ स्वार्थ की भावना पनप जाती है, वहाँ सम्बन्धों में टकराहट प्रारम्भ हो जाती है; जो विषमता का कारण बन जाती है। इस प्रकार सामाजिक विषमता के उत्पन्न होने के चार मूलभूत कारण हैं : १. संग्रह; २. आवेश; ३. गर्व (बड़ा मानना); और ४. माया (छिपाना)। इन्हें जैन परम्परा में चार कषाय कहते हैं। यही चार कारण अलग अलग रूप में सामाजिक जीवन में विषमता, संघर्ष एवं अशान्ति के कारण बनते हैं। १. संग्रह की मनोवृत्ति के कारण शोषण, अप्रमाणिकता, स्वार्थपूर्ण व्यवहार, क्रूर व्यवहार, भ्रष्टाचार, लूटपाट, विश्वासघात आदि बढ़ते हैं। २. आवेश के परिणामस्वरूप नगण्य, महत्त्वहीन पर-पदार्थों में 'स्व' का आरोपण होकर संघर्ष, युद्ध, आक्रमण एवं हत्याएँ आदि होती हैं। ३. गर्व की मनोवृत्ति के कारण घृणा, हीनत्व की भावना और क्रूर व्यवहार होता है। ४. माया के परिणामस्वरूप अविश्वास एवं अमैत्रीपूर्ण व्यवहार उत्पन्न होता है। जैनदर्शन इन्हीं चार कषायों के निरोध को समत्वयोग की साधना का आधार बनाता है और समत्वयोग की साधना द्वारा सामाजिक विषमताओं को समाप्त कर सामाजिक समत्व की स्थापना का प्रयत्न करता है। सामाजिक क्षेत्र में ऊँच-नीच, छुआछूत, जातिगत भेदभाव, रंगभेद, राष्ट्रभेद, प्रान्तभेद, वर्गभेद आदि को लेकर राग-द्वेष का जाल बिछा हुआ है। राग-द्वेष की उपस्थिति से विश्व मैत्री तो दूर रही, परिवार मैत्री के दर्शन भी नहीं हो पाते। जहाँ मन में भेदभाव की रेखा खिंच जाती है, राग-द्वेष, मोह-घृणा आदि विषमताओं का राज्य हो जाता है और जहाँ घृणा और विद्वेष की वृत्ति होती है, वहाँ सामाजिक समता, मैत्री एवं शान्ति कहाँ रह सकती है। ६ 'जैन, बौद्ध और गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन' भाग १ पृ. १५५ । -डॉ. सागरमल जैन । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001732
Book TitleJain Darshan me Samatvayog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyvandanashreeji
PublisherPrem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
Publication Year2007
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Yoga, & Principle
File Size7 MB
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