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समत्वयोग : साधक, साध्य और साधना
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१. सम; २. संवेग; ३. निर्वेद;
४. अनुकम्पा; और ५. आस्तिक्य।२६ इन पांच अंगों में भी सम् को प्रधानता दी गई है। समभाव के बिना न तो संवेग सम्भव है और न निर्वेद या वैराग्य ही। जैनदर्शन में जो सम्यग्दर्शन की साधना बताई गई है, वह मूलतः समत्वयोग की साधना ही है। क्योंकि समत्व की साधना के बिना दर्शन या वृत्ति सम्यक् नहीं बनती। इसी प्रकार जैनदर्शन में सम्यग्ज्ञान में मुख्य रूप से दो पक्षों पर विस्तार से चर्चा की गई है :
१. भेद विज्ञान अर्थात् आत्म अनात्म का विवेक; तथा २. अनेकान्त।
सम्यग्ज्ञान को भेद विज्ञान कहा गया है। वह आत्म-अनात्म या स्व-पर का विवेक है। साधक जब तक स्व-पर के भेद को नहीं समझता है अथवा उसमें आत्म-अनात्म के विवेक का विकास नहीं होता है, तब तक पदार्थों के प्रति उसकी आसक्ति समाप्त नहीं होती है। जब तक व्यक्ति में राग बना हुआ है, तब तक द्वेष की भी सत्ता रहती है। राग-द्वेष के कारण आत्मा का समत्व भंग होता है। भेद-विज्ञान या आत्म-अनात्म विवेक का कार्य हमारी आसक्ति या राग भाव को समाप्त करता है। राग के समाप्त होने पर ही चेतना में समत्व का विकास होता है। इस प्रकार सम्यग्ज्ञान की साधना मूलतः समत्वयोग की साधना है। सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान के स्वरूप आदि के सम्बन्ध में हम पूर्व अध्याय में चर्चा कर चुके हैं। यहाँ हमारा उद्देश्य मात्र यह बताना है कि सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान की साधना वस्तुतः समत्वयोग की ही साधना है।
सम्यक्चारित्र की साधना भी समत्वयोग की ही साधना है। क्योंकि सम्यक्चारित्र की साधना का मुख्य लक्ष्य भी क्रोध, मान, माया और लोभ रूप चारों कषायों तथा पांचों इन्द्रियों एवं मन पर संयम स्थापित करना है। इन्द्रियों के माध्यम से व्यक्ति की चेतना
१३६ 'शम-संवेग-निर्वेदाऽनुकम्पाऽऽस्तिक्यलक्षणैः । ___लक्षणैः पंचभिः सम्यक् सम्यकत्वमुपलक्ष्यते ।। १५ ।।'
योगशास्त्र २ । १४० 'जैन, बौद्ध और गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन' भाग १ पृ. ४५५ ।
___ -डॉ. सागरमल जैन ।
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