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________________ जैनदर्शन में समत्वयोग की साधना पदार्थों के प्रति आसक्त बनती है । इन्द्रियों के द्वारा हमें जो सम्वेदन प्राप्त होते हैं, वे या तो अनुकूल होते हैं या प्रतिकूल होते हैं । अनुकूल के प्रति राग उत्पन्न होता है और प्रतिकूल के प्रति द्वेष । राग-द्वेष के कारण चेतना का समत्व भंग होता है । राग के कारण आकाँक्षा और इच्छा का जन्म होता है । जो पदार्थजन्य सम्वेदन अनुकूल लगते हैं, उन्हें हम बार-बार पाना चाहते हैं अर्थात् उनको बार-बार पाने की इच्छा होती है । इच्छाओं के कारण ही चेतना का समत्व भंग होता है । सम्यक्चारित्र का काम मुख्य रूप से इच्छा और आकाँक्षा से ऊपर उठने का ही है । उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया है कि एक मन या आत्मा पर विजय प्राप्त करने से पांचों इन्द्रियों पर विजय प्राप्त होती है तथा पांचों इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करने से व्यक्ति चारों कषायों पर विजय प्राप्त कर लेता है । इन पर विजय प्राप्त कर लेने से उसकी चेतना समत्व से युक्त हो जाती है । सम्यक्चारित्र का लक्ष्य इसी समत्वपूर्ण अवस्था या सम्वेदन को प्राप्त करना है । यह वीतरागदशा की उपलब्धि है और यही समत्वयोग की पूर्णता है। इस प्रकार जैनदर्शन में जो सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र की साधना बताई गई है, वह समत्व की साधना ही है । हमारे भाव या अनुभूति, हमारा ज्ञान और हमारा आचरण तनावों और विक्षोभों से रहित बने, यही समत्वयोग की साधना का लक्ष्य है और इसे ही जैनदर्शन में त्रिविध साधनामार्ग के रूप में प्रस्थापित किया गया है । ।। तृतीय अध्याय समाप्त ।। २१८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001732
Book TitleJain Darshan me Samatvayog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyvandanashreeji
PublisherPrem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
Publication Year2007
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Yoga, & Principle
File Size7 MB
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