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________________ २१६ जैनदर्शन में समत्वयोग की साधना सागरमल जैन लिखते हैं३८ कि मनोवैज्ञानिक दृष्टि से मानवीय चेतना के तीन पक्ष माने गये हैं - ज्ञान, भाव और संकल्प। जीवन का साध्य चेतना के इन तीनों पक्षों का विकास माना गया हैं। अतः यह आवश्यक ही था कि इन तीनों पक्षों के विकास के लिये त्रिविध साधनामार्ग का विधान किया जाय। चेतना के भावात्मक पक्षों को सम्यक् (सम्यक्त्वपूर्ण) बनाने और उसके विकास के लिये सम्यग्दर्शन या श्रद्धा की साधना का विधान किया गया है। इसी प्रकार ज्ञानात्मक पक्ष के लिये ज्ञान का और संकल्पात्मक पक्ष के लिये चारित्र का विधान है। इस प्रकार हम देखते हैं कि त्रिविध साधनामार्ग के विकास के पीछे एक मनोवैज्ञानिक दृष्टि रही है। . वस्तुतः यहाँ हम देखते हैं, कि हमारी भावनाओं के असन्तुलन को समाप्त करने के लिये सम्यग्दर्शन का, हमारे ज्ञान को सन्तुलित करने के लिये या ज्ञानजन्य विवादों के समाधान के लिये सम्यग्ज्ञान का और कषाय और वासनाजन्य तथा इच्छा और आकाँक्षा जन्य तनावों को समाप्त करने के लिये सम्यकचारित्र का उपदेश दिया गया है। यदि हम मनोवैज्ञानिक दृष्टि से विचार करें, तो हमारे वैयक्तिक या सामाजिक जीवन में तनाव व संघर्षों का कारण दृष्टिराग या आग्रहबुद्धि ही होता है। हम इतने आग्रहशील बन जाते हैं कि दूसरों की अनुभूतियों और विचारों को मिथ्या मानने लग जाते हैं। इस आग्रह बुद्धि और अपने सीमित ज्ञान की सीमा को न समझने कारण ही विवादों का जन्म होता है और उससे चेतना तनावयुक्त बनती है। सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान की साधना का मुख्य लक्ष्य विवादों के घेरे से ऊपर उठकर चैतसिक समत्व को बनाये रखना है। जैनदर्शन में सम्यग्दर्शन के लिये आग्रह और एकान्त से ऊपर उठना आवश्यक माना गया है। उसमें सम्यग्दर्शन के निम्न पांच अंग माने गये हैं : १३८ 'जैन, बौद्ध और गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन' भाग १ पृ. ४५५ । -डॉ. सागरमल जैन । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001732
Book TitleJain Darshan me Samatvayog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyvandanashreeji
PublisherPrem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
Publication Year2007
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Yoga, & Principle
File Size7 MB
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