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समत्वयोग : साधक, साध्य और साधना
चाहिये कि स्वानुभूतियों की गहराईयों में उतरकर आत्मानन्द का रसास्वादन करना। उससे एक अभूतपूर्व आत्मानुभूति होती है । सामायिक सद्गृहस्थ का आत्म कवच है । इससे निर्ग्रन्थता की दिशा में कदम बढ़ते हैं । सामायिक हमारे जीवन में शान्ति की सन्देश वाहिका है। इसमें प्रवेश करने से समभाव में दृढ़ता आती है ।
३.७ समत्वयोग की साधना विधि
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जैसा कि हमने पूर्व में बताया समत्वयोग का साध्य समत्व या समभाव की उपलब्धि है। यही वीतरागदशा है और यही मोक्ष है । समत्वयोग की साधक आत्मा भी अपने स्वस्वरूप या स्वभाव लक्षण की अपेक्षा से तो समत्व से युक्त है । किन्तु वर्तमान में राग-द्वेष एवं इच्छा-आकाँक्षाजन्य विषमताओं या तनावों से ग्रस्त है । फिर भी जो समत्व या वीतरागता को प्राप्त करने का इच्छुक है, वही समत्वयोग का साधक है । जहाँ तक समत्वयोग के साधनामार्ग का प्रश्न है, वह भी समत्व, समता या वीतरागदशा की प्राप्ति का प्रयत्न ही है । तत्त्वार्थसूत्र में आचार्य उमास्वाति द्वारा स्पष्ट रूप से यह कहा गया है कि सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, और सम्यक् चारित्र ही मोक्ष मार्ग है ।' आचार्य कुन्दकुन्द ने समयसार एवं नियमसार में और आचार्य हेमचन्द्र ने योगशास्त्र में कहा है कि ज्ञान, दर्शन और चारित्र यह आत्मा ही है । इस प्रकार वे साधनामार्ग और साधक में तादात्म्य स्वीकार करते हैं । यह सत्य है कि सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र की सत्ता या अस्तित्त्व आत्मा से पृथक् नहीं है । फिर भी व्यवहार के स्तर पर इन्हें आत्मा से पृथक् माना है । अन्यथा साध्य, साधक और साधनामार्ग में कोई अन्तर ही नहीं रह जाता है । वस्तुतः सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र से आत्मा अभिन्न होकर भी वे उसकी पर्यायदशा के सूचक हैं। पर्याय द्रव्य से कथंचित भिन्न और कथंचित अभिन्न होती है। ये सम्यग्दर्शन आदि रूप पर्यायें सभी आत्मा में नहीं होती हैं । अतः वे कथंचित भिन्न और कथंचित अभिन्न होती हैं । इस सम्बन्ध में डॉ.
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तत्त्वार्थसूत्र १/१ 1
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